SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०६ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा पतिजनितानुमानस्यैव तमाहकत्वात् । ननु साम्यधीनोत्पसिकरवात् कार्याणां कथं तदन्यथानुपपत्तिः यतोऽनुमानात्तत्सिन्द्रिः स्यात् इत्यसमीचीनं यतो नास्माभिः सामायाः कार्यकास्त्विं प्रतिषिध्यते किन्तु प्रतिनियतायाः सामग्याः प्रसिमियतकार्यकारिवं अतीन्द्रियशक्तिसहभावमन्तरेणासंभाव्यमित्यसावध्यग्युपगंतव्या । -प्रमेयकमल-मार्तण्ड २,२ पृ० १९. कारगरेर इमदा में हिन्दी अर्थ आपने किया है उससे हमारा कोई विरोध नहीं है। इस उद्धरणा के आगे एक दूसरा उद्धरण भी प्रमेयकमलमार्तण्डका ही आपने दिया है जो निम्न प्रकार है यच्चोच्यते-शक्तिनित्या अनित्या वेत्यादि । तत्र किमयं दव्यशक्ती पर्यायशक्ती या प्रश्नः स्यात्, भावानां दध्यपर्यायशक्त्यान्मयात् । तत्र इयशक्तिमित्यैव, अनादिनिधनस्वभाषस्वाद् द्रव्यस्य । पर्यायशक्तिस्वनित्यैव, सादिपर्यवसानत्वात् पर्यायाणाम् । म च शक्तेनित्यत्वे सहकारिकारणानपेक्षयवार्थस्य कार्यकारिखानुपंगः, द्रव्यशक्तः केवलायाः कार्यकारिवानम्युपगमातू । पर्याप्रशक्तिसमन्विता हिय्यशक्तिः कार्यकारिणी, विशिष्टपर्यायपरिणतस्यैव द्रव्यस्य कार्यकारिस्वातीतेः । तत्परिणतिश्चास्य सहकास्किारणापेक्षया इति पर्यायशक्तेस्तव भावात सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसंगः सहकारिकारणापेक्षायथ्यं वा। -अमेय० २,२, पृष्ठ २०७ इसका भी जो हिन्दी अर्थ आपने किया है उससे और इस उद्धरणसे भी हमारा कोई विरोध नहीं है। चूंकि दोनों उद्धरणोंका हिन्दी अर्थ आपने किया है, अतः यहाँ पर नहीं लिखा जा रहा है। उसे आपके द्वितीय उत्तरमें ही देख लेना चाहिये । अब यहां पर यह प्रश्न उठता है कि जब हमारे और आपके मध्य प्रमेयकमलमार्तण्डके उल्लिखित दोनों उद्धरणोंकी प्रमाणताको स्वीकार करने में विवाद नहीं है तथा उन दोनों ही उद्धरणोंका जो हिन्दी अर्थ आपने किया है उनसे भी हमें विरोध नहीं है तो फिर विवादका आधार क्या है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि आपने उक्त दोनों उद्धरणोंका हिन्दी अर्थ ठीक करके भी उसका अभिप्राय ग्रहण करने में गलती कर दी है। उक्त दोनों उद्धरणोंमेंसे प्रथम उद्धरणका अभिप्राय यह है कि यद्यपि प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति साधन सामग्रीकी अधीनतामें ही हुमा करतो है, परन्तु प्रत्येक प्रकारकी सामोसे प्रत्येक प्रकारका कार्य उत्पन्न न होकर सामग्रीविशेषसे कार्गविशेषके उत्पन्न होनेका जो नियम लोकमें देखा जाता है इसके आधार पर ही अतोन्द्रिय शक्तिको स्वीकार करना आवश्यक हो जाता है। तात्पर्य यह है कि घटको उत्पत्ति मिद्रीसे ही होतो है, पटके माधनभूत तंतुओंसे कदापि घटको उत्पत्ति नहीं होती । इसी प्रकार मिट्टीसे घटके उत्पन्न होने में कुम्हारका व्यापार हो अपेक्षित होता है जुलाहेका व्यापार अपेक्षित नहीं होता यह जो निमम लोक में देखा जाता है यह नियम उपादान और निमित्तभूत वस्तुओंमें अपने-अपने ढंगकी अतीन्द्रिय शक्तिको स्वीकार किये बिना नहीं बन सकता है, अतः उपादानभूत वस्तृमें कार्य विशेषरूपसे परिणत होनेकी और निर्मिसभूत वस्तुमें उस उपादानभूत वस्तुको उसको उस कार्यरून परिणतिमें सहयोग देनेको अपने-अपने ढंगको पृथक्पृषक अतीन्द्रिय शक्तिका सदभाव स्वीकार करना आवश्यक है। इसी प्रकार दूसरे उद्धरणका अभिप्राय यह है कि प्रतिनियत कार्यके प्रति प्रतिनियत वस्तु ही उपादान कारण होती है । जैसे घटरूप कार्यके प्रति मिट्टी हो उपादान कारण होती है यह तो ठीक है । परन्तु स्यूल
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy