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जयपुर (खानिया ) तत्त्वपर्धा तथा कश्चित् संसारी सम्भवदासममुकिरभिव्यकसम्यग्दर्शनाधिपरिणामः, परोऽमन्तेनापि कालेन सम्भवदमिन्यासानादिः ।
उसो प्रकार जिसे मुक्ति प्राप्त करना आसन-अतिनिकट है ऐगा संसारी जीव सम्यग्दर्शनादि परिणामको उत्पन्न करता है। दूसरा अनन्त कालके द्वारा भी सम्यग्दर्शनादि परिणामको उत्पन्न करता है।
यदि अपर पक्ष कहे कि जो-जो अनादि मिथ्यावृष्टि जीव प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है उन सबका सम्यक्त्व गुणके कारण मोक्ष प्राप्त करने का काल तो अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण ही शेष रहता है। किन्तु बादमें कोई जोब उसे घटा लेते है और कोई जीव नहीं घटा पाते ? समाधान यह है कि
(क) एक तो अपर पक्षके इस कथनका तत्वार्थवातिक और सार्थसिद्धि के उक्त कथनके साथ स्पष्ट विरोध पाता है, क्योंकि उन ग्रन्थोंके उक्त कथनमें सामान्य योग्यताका निर्देश करते हुए मात्र हतना हो कहा गया है कि अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कालके शेष रहने पर संसारो जोब प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य होता है। निर: पाटि शोर हदगलपरिवर्तन प्रमाण कालके शेष रहने पर नियम से प्रथम सभ्यत्वको उत्पन्न करता है यह नहीं कहा गया है। अतः उक्त कथनको नियम वचन न जान कर मात्र सम्यक्त्वको प्राप्त करने की योग्यता, मोश जानेके लिए संसारमें कितना काल शेष रह जानेपर, प्राप्त हो जाती है इस प्रकार योग्यताका सूचक वचन जानना चाहिए।
(ख) दुसरे कोई जीव सम्यक्त्व गुण के कारण अर्धपदगलपरिवर्तनप्रमाण कालमें और भी कमो कर लेते है और कोई जीव नहीं कर पाते, यदि ऐसा माना जाय तो पृथक-पृथक जीवोंको अपेक्षा सम्यक्त्व गुणकी पथक-पृथक् सामर्थ्य माननेका प्रसंग उपस्थित होता है, जो युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर जो विविध मापत्तिया उपस्थित होती है उनसे अपर पक्ष अपने कथनको रक्षा नहीं कर सकता। यथा-३ ऐसे जीव लीजिए, जिन्होंने एक साथ प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न किया है। उनमेसे अन्तमहलबाद एक जीव वेदकसम्यग्दृष्टि बनता है, दूसरा मित्र गुणस्थानमें जाता है और तीसरा मिथ्यादष्टि हो जाता है। सो क्यों ? मालूम पड़ता है कि अपर पक्षने इस तथ्य पर अणुमात्र भी विचार नहीं किया। जब कि इन तीनों जीवोंने एक साथ सम्यक्त्व उत्पन्न किया है और वे तीनों ही जोव अनन्त संसारका उच्छेद कर सम्यक्त्व गुणके कारण उसे अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कर लेते हैं। ऐसी अबस्थामें वे उसी सम्यक्त्व गुणके कारण ऐसी सामर्थ्य क्यों नहीं उत्पन्न कर पाते जिससे उन्हें पुनः मिथ्यादष्टि या मिथ गुणस्थामवाला बनने का प्रसंग ही उपस्थित न हो। अपर पक्ष इन जीवोंको सम्यक्त्त गुणसम्बन्धी हीनाधिकताको तो इसका कारण कह नहीं सकता और न ही मिथ्यात्वादि द्रव्यकर्मोकी बलवत्ताको इसका कारण कह सकता है, क्योंकि इन जीवोंमें सम्यक्त्व गुणकी हीनाधिकसा मानने पर अपर पक्षका यह कथन कि वे जीव सम्यक्त्व गुणके कार संसारका उच्छेद कर समानरूपसे अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कर लेते है कोई मायने नहीं रखता । अनन्त संसारका उच्छेद करनेकी सम्यक्त्त गुणको सामर्थ्य मानी जाय और संसारको जड़ मिथ्यात्वके समूल नाश करनेको सामथ्र्य न मानी जाय इसे भला कौन बुद्धिमान स्वीकार करेगा ।
(ग) तोसरे धवला पु० ४ पृ० ३३५ में यह वचन आया है कि---
सम्मत्तगुणेण पुचिल्लो अपरिसो संसारो ओहहिंदूण परित्तो पोग्गलपरियहस्स अमंसो होदूण उक्कस्सेण चिटुदि।
सम्यवस्व गुणके कारण पहले के अपरीत संसारका उच्छेदकर परीत पुद्गलपरिवर्तनका अर्षमात्र होकर उत्कृष्ट रूपसे ठहरता है।