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शंका १६ और उसका समाधान
२. फालप्ररूपणामें और अन्तरकालग्ररूपणा में कालकी ही मुख्यता रहती है। कालप्ररूपणाम यह बतलाया जाता है कि कमसे कम कितने कालतक और अधिकसे अधिक कितने काल तक यह जीव विवक्षित गुणस्थान या मार्गणास्थान आदिमें रहेगा। और अन्तर काल प्ररूपणाम यह बतलाया जाता है कि कमसे कम कितने काल बाद और अधिक से अधिक कितने कालवाद यह जीव पुनः विवक्षित गुणस्थान या मार्गणास्थान
आदिको प्राप्त करेगा और जिम गगास्थान या मार्गणास्थानका एक जोव या नाना जीवोंको अपेक्षा अन्तरकाल नहीं बनता वहां उसका निषेध कर उसे निरन्तर बतलाया जाता है। इससे यह तो स्पष्ट हो गया कि आगममें कालप्ररूपणामें जहाँ भी 'अर्धपुदगलपरिवर्तन' पद आया है वहाँ उससे अर्धपुदगलपरिवर्तनको ग्रहण न कर मात्र उस में जितमा काल लगता है उस कालको ग्रहण किया गया है।
प्रत्येक कार्य अपने प्रतिनियत काल के प्राप्त होने पर ही होता है, अन्यदा नहीं होता इस तथ्यका खण्डन करने के लिए आजकल यह भी कहा जाने लगा है कि अधिकसे अधिक अर्धपदगलपरिपतन कालके शेष रहने पर सम्यक्त्व प्राप्त होता है इसका आशय यह है कि अब जब यह जोष पद्गलपरिवर्तन करता है तब तब उस परिवर्तनके आचे शेष रह जान पर सम्परावका प्रान्त करनको योग्यता उत्पन होतो है।
हमारे सामने यह प्रश्न रहा है और यहाँ भी अपर पक्षने जो कुछ भी लिखा है उससे यह भाव झलकता है, इसलिए हमें पूर्वोक्त स्पष्टीकरण करने की आवश्यकता प्रतीत हुई।
३. यह तो अपर पक्ष हो जानता है कि करणलब्धि द्रश्य, क्षेत्र मादि किसी भी परिवर्तन में पड़े हुए जीवके न होकर उसका उच्छेद करने पर ही हो सकती है। स्पष्ट है कि जो जीव पुद्गलपरिवर्तन कर रहा है वह उसे करते हुए तो न कारणलब्धि कर सकता है और न ही सम्यक्त्वको ही प्राप्त कर सकता है।
यदि कहा जाय कि जिस समय यह जीव सम्यकनको प्राप्त करने के सम्मुख होकर करणलब्धि करता है उस समय पुद्गलपरिवर्तन का विच्छेद होकर सम्यक्त्व प्राप्त करने के समय सम्यक्त्व गुण के कारण उसका आषा काल रह जाता है? समाधान यह है कि सर्वार्थसिद्धि और तत्वार्थरात्तिकके उपत उल्लेखसे यह आशय व्यक्त नहीं होता, क्योंकि उसमें यह सष्ट कहा गया है कि कितना काल अवशिष्ट रहने पर अनावि मिथ्यादष्टि जोष प्रथम सम्यक्त्यक ब्रहणके योग्य हता है। इसका आशय तो इतना ही है कि यहाँसे लेकर यह जीव सदा प्रथम सम्पनत्व ग्रहण के योग्य है । जिस प्रकार संजो पर्यातक कर्मभूमिज मनुष्य के सम्बन्ध में आगममे यह विधान है कि आठ वर्षका होने पर ऐसा मनुष्य सम्यक्त्व, संयमामयम और संयमके बहण के योग्य होता है। उसी प्रका यह विधान है। दोनों में कोई अन्तर नहीं। बाह्य सामग्रीके साथ यदि अन्तःसामग्रीकी अनुकूलता होती है तो कर लेता है. अन्यथा नहीं करता। कोई एक नियम नहीं, क्योंकि प्रत्येक जावके अपने-अपने प्रतिनियत कार्यों का स्वकाल पृथक-पृथक हैं। तत्त्वार्थवार्तिक अ० १ सू० ३ का भी यही आशय है।
१. अपर पक्षने धवला गु० ४ और ५. के दो प्रमाण दिये है । धवला पु० ४ के प्रमाण सम्यक्त्वको मात्र महत्ता दिखलाई गई है, अन्यथा जो जो अनादि मिथ्यादष्टि प्रथम मुम्यक्त्वको प्राप्त करे उन सबको अर्ध. पुद्गलपरिवर्तन काल तक संसार में रहने का प्रसंग उपस्थित होता है । किन्तु उक्त आगमका यद् अभिप्राय नहीं है, क्योंकि कितने हो जावोंको अर्धदगलपरिवर्तनप्रमाण कालके शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त होता है और कितने ही जीवोंको इससे कम काल शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्र प्राप्त होता है। इसो तम्पको स्पष्ट करते हुए आचार्य विद्यानन्दि तत्त्वार्थरलोकवातिक पृ० ११ में लिखते हैं