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________________ ७८२ अयपुर ( स्थानिया) तत्त्वचर्चा यहां पर प्रश्न होता है कि यदि ऐसी बात है तो व्रत, नील आदिको परमागम, मोक्षमार्ग क्यों कहा ? यह प्रश्न है । इसका समाधान करते हुए पण्डितप्रबर टोडरमल जी मोक्षमार्गप्रकाशक प० ३७४ में लखते है बहुरि परदन्यका निमित्त भेटनेकी अपेक्षा प्रत, शील, संयमादिकको मोक्षमार्ग कया सो इन ही की मोक्षमार्ग न मानि लेना । जाने पर व्यका ग्रहण-त्याग आत्माकै होय तो आम्मा पर हय्यका कर्ता-हर्ता होय । इस प्रकार ज्ञान हो मोक्षका साधन है इसका स्पष्टीकरण किया। १२. सम्यक्त्व प्राप्तिके उत्कृष्ट कालका विचार गरमागम में यह जीव अधिक से अधिक कितने काल के शेष रहनपर सम्यक्त्वको प्राप्त कर लेता है इसका विचार करते हुए तत्वार्थवातिक ज० २ ० ३ में लिखा है रात्र काललब्धिस्तावत् कमाविष्ट आत्मा भन्यः कालेधपुद्गलपरिवर्तनालग्नेऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्या भवति नाधिक हत्तीयं काललब्धिरेका वहां काललब्धि तो कर्माविष्ट भम्य आत्मा अर्धयुद्गलपरिवर्तन नामवाले काळके शेष रहने पर प्रथम सम्बत्व के ग्रहण के योग्य होता है, अधिक काल रहने पर नहीं, यह एक काललब्धि है। आचार्य पूज्यपादने भो सर्वार्थसिद्धि अ० २ सू. ३ में इन्ही शब्दोंमें इसी बात को स्वीकार किवा है। १. यहाँ 'काल' पद विशेष्य है और 'अर्धपुद्गलपरिवर्तनाख्य' पद विशेषण है। इससे म जानते हैं कि प्रकृतमें एक समय, एक आवलि, एक उच्छवास, एक मुहूत, एक दिन-रात, एक पस, एक मास. एक ऋतु. एक अयन, एक वर्ष, संख्यात्त वर्ष, असंख्यात वर्ष, पल्योयमका असंख्यातवाँ भाग, पल्योयमका संख्यातवां भाग, एक सागरोपम, संख्यात सागरोपम, लोकका असंख्वातवां भाग, एक लोक, अंगुलका असंख्यातवां भाग, अंगुलका संख्यातवां भाग, क्षुल्लकभवप्रहण, पूर्वकोटि, पूर्वकोटिपृथक्त्व, असंख्यात लोक और अनन्तकाल आदि जिनका नाम है ये सव काल यहाँ पर नहीं लेने हैं। किन्तु यहाँ पर अर्धपुद्गलपरिवर्तन नामवाला काल लेना है । इसका यह आशय फलित हुआ कि आगममें जहाँ भी यह लिखा है. कि अर्धपुद्गलपरिवर्तन कालके या अर्धपुद्गलपरिवर्तन नामवाले कालके शेष रहने पर यह जीव प्रथम सम्यक्त्व ग्रहणके योग्य होता है वहीं उसका यही तात्पर्य है कि जब इस जीवको मोम जानेके लिए अधिकसे अधिक अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण काल शेष रहना हूँ तब यह जीव प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण कर सकता है, इससे अधिक कालके शेष रहनेपर नहीं । जहाँ समय, आलि, उच्छ्वास, अन्तर्मुहूर्त, दिन-रात, सप्ताह. पक्ष, मास, ऋतु, अयन और वर्षादिके द्वारा कालका ज्ञान नहीं कराया जा सकता है वहाँ पल्योपम, सागरोपम, लोक, पुद्गलपरिवर्तन, और अर्थपुद्गलपरिवर्तन आदि उपमानोंके द्वारा उपमेयका ज्ञान कराया जाता है। यहाँ मोक्ष जानेके अधिकसे अधिक कितने काल पूर्व यह जीव सम्यक्त्यको प्राप्त कर सकता है इसका जान कराने के लिए इसी पद्धतिको अपनाया गया है।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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