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अयपुर (खानिया) तत्वचर्चा साथ ही जो भी महाशय पूर्व पर्यायके मंस और उत्तरपर्यायके उत्पादको सर्वथा एक माननेका उपक्रम करते है उन्हें भो उक्त प्रकारका अपना ऐकान्तिक आग्रह छोड़ना है। उनके लिए 'एतदविषयक अज्ञानको छोड़ना है ऐसा कटु प्रयोग करना हमारी सारथ्यके बाहर है।
मूनागधना गाया ४ का 'अन्धय-व्यतिरेकसमधिगम्यो' इत्यादि वचन देकर कार्यके प्रति कारणका अन्वय-व्यतिरेक सिद्ध किया गया है। मो यह दधे इष्ट है, क्योंकि यह तो जैन सिद्धान्त ही है कि उपादान के साथ कार्यको आभ्यन्तर व्याप्ति होती है और निमित्तोंके साथ कार्यको बाह्य व्याप्ति होती है । कार्य के प्रति कारणों को यही समग्रता है, साथ ही यह भी जैन सिद्धान्त है कि कार्य में अन्य द्रव्यकी पर्याय की निमित्तता व्यवहारन पसे है। संभवत. यह सिद्धान्त आपको भी मान्य होगा, हमें तो मान्य है हो। इसलिए . प्रकृतमें इस प्रमाण को उपस्थित कर किस प्रयोजनकी सिद्धि को गई है यह हम नहीं समझ सके । जब कि हमने यह लिखा ही है कि 'जो चार बात्तिया कर्म अज्ञानादिके निमित्त है, जो कि निमित्ताने की अपेक्षा के वनज़ान की उत्पत्ति के प्रतिवरबक माने गये हैं उनका ध्वंस होने पर केवलज्ञान स्वभावमे उत्पन्न होता है।' ६० फुट चन्द्र द्वारा लिखित मोशाय ४५५ के उल्लेख को अपर पलने आगमरूपम स्वीकार कर लिया यह जहाँ उचित हुआ वहाँ हम यह भी बतला देना चाहते है कि वह उल्लेख वस्तुतः अपर एनके मत का समर्थन न कर तर पक्षका हो समर्थन करता है। यह बात हमारे द्वारा प्रथम उत्तरमें निरूपित तथ्य और इस वचन को सामने रखकर अवकोकन करनेसे भली भांति समझो जा सकती है। प्रथम उत्तरमें हमने लिखा है
'अत: इससे यही फलित होता है कि पूर्वमे जो शातावरणीय रूप कर्मपर्याय अशान भावकी उत्पत्तिका निमित्त थो उग निमित्तका अभाव होनसे अर्थात् उसके अकर्म परिणम जानेसे अज्ञानभावके निमित्तका प्रभाव हो गया और उसका अभाव होनेसे नैमित्तिक अज्ञान पर्यावका भी अभाव हो गया और केवलज्ञान स्मभावसे प्रगट हो गया ।'
अब इसके प्रकाराम मोक्षशास्त्रका उक्त वचन पढ़िए--
'चात यह है कि जितने भी क्षायिक भाव है सब आत्माके निजभाव है। पर संमार दशाम वे कमोसे यातित रहते है और ज्योंही उनके प्रतिबन्धक कमौका अभाव होता है त्योंही वे प्रगट हो जाते है।'
पता नहीं हमारे पूर्वोक्त वचनमें और इस वचनम अपर पक्षने क्या फर्क देखा जिससे उसे यह वयन तो आगम प्रतीत हा और पूर्वोत वचन आगम प्रतिकूल प्रतीत हुआ। लगता है कि 'घातित रहते हैं' 'प्रतिबन्धक कर्मों का अभाव' इन पदोको पाकर ही अपर पक्षने मोक्षशास्वके उल्लेखको आमम माना है। सो यह निमित्तोंकी निमित्तता क्या है इस पर सम्या प्रकारसे लक्ष्य न जाने का परिणाम प्रतीत होता है । अपर पक्षको मान्यता है कि निमित्त दूसरे द्रव्यकी शक्तिको वास्तवम घातित करते है या उसमें अतिशय उत्पन्न कर देते है । जब कि इस प्रकारका कथन जिनागममें व्यवहार ( उपचार ) नयसे किया गया है। प्रकृसमें भी उक्त पदों का प्रयोग इसा अभिप्रायसे हुआ है। इस पद्धतिमें लिखना या कथन करना यह व्यवहारनयके कथनकी शैली है।
अपर पक्षने हमारे इस कथनको कि 'हमारो रांसारको परिपाटी चल रही है उसमें हम स्वयं अपराधी है।' अप्रासंगिक बतलाया है और हमसे 'अपराध क्या स्वभाव है या आगन्तुक विभाव ( विकारी भाव) है' यह प्रश्न अरके जसे आगन्तुक सिद्ध करते हुए परसंगको कारण बतलाकर संसाररूप परिपाटीको परसंगरूप