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________________ शंका १५ और उसका समाधान ७११ कारणजन्य सिद्ध किया है। तथा प्रमाणस्वरूप आचार्य अमृतपन्द्रका 'म जानु रागादि' इत्यादि कलश उपस्थित किया गया है और अन्त में निष्कर्षको फलित करते हुए लिखा है 'हमारा अपराधी होना भी मोहनीय कर्मोदयको आघोन है। जब तक मोहनीय कर्मका क्षय नहीं होगा तब तक अपराध अवश्य बना रहेना, क्योंकि निमित्तके अभावके बिना नैमित्तिक भावका अभाव सम्भव नहीं है।' सो प्रकृतमें यह देखना है कि संसारी जीषका 'परका संग करना' अपराध है कि 'परसंग' अपराध है। यदि केवल परसंगको अपराध माना जाए तो कोई भी जीव संसारसे मुक्त नहीं हो सकता, क्योंकि किसी न किमी प्रकारसे अन्य द्रव्यों का संयोग संसारी और मुक्त जीवोंके सदा बना हुआ है। और यदि परका संग करना अपराध माना जाता है तो यह प्रकृतमें स्वीकृत है, क्योंकि आचार्य अमृतचन्द्र के 'न जातु रागादि' इत्यादि कलशका यही अभिप्राय है। आचार्य महाराज इस कलश द्वारा वस्तुस्थिति पर प्रकाश डालते हुए लिखते है--कि संसारी जीवने परसंग किया, इसलिए परका संग उसकी विभाष परिणति में निमित्त हो गया। प्रकृतमें यह अभिप्राय है कि संसारी जीव परमें एकत्वबुद्धि और राग-द्वेष द्वारा निरन्तर परसंग करता आ रहा है, इस कारण वह पराधीन बना हुआ है। इस प्रकारको पराधीनता रूप स्वयं स्वतन्त्ररूपसे परिणम रहा है, इसलिए यह जीवकी सच्ची पराधीनता कही गई है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि अपने द्वारा किया गया ऐसा जो परसंग है वह संसारकी जड़ है । यदि यह जोब अपने उपयोगस्वभावके द्वारा स्वभाव सन्मुख होकर उक्न प्रकारके परसंग करने की रुषिका त्याग करदे अर्थात् परमे एकत्वबुद्धि और राग-द्वेष न करे तो जो उसके परके साथ अनादिकालसे निमित्तन्नैमितिकपना ध्यवहारसे बना चला रहा है उसदा सुता शन्न हो जाए । इमभावप्राप्ति या मुक्ति इमीका दूसरा नाम है। हमें विश्वास है कि इस स्पष्टोकरणसे प्रकृतम 'परसंग' पदका क्या तात्पर्य है और उसे अपराध किस रूप में माना गया है इत्यादि तथ्यों का खुलासा होकर हमारा पूर्वोक्त कथन कैसे प्रकरणसंगत है इसका स्पष्ट प्रतिमान हो जाएगा। प्रतिका ३ के अंत में 'पुनश्च पदके उल्लेखपूर्वक जो कुछ लिखा गया है वह केवल पिछले कथनका पिष्टपेषणमात्र है, उसमें विचार करने योग्य नई ऐमी कोई बात नहीं लिखी गई है, अत: उस पर अधिक विचार न करना है। प्रेयस्कर है। हो, अपने पूर्वोक्स कथनको पुष्टिम पंडत फूलचन्द्र द्वारा लिखित तत्त्वार्थसूत्र अ० १० सूद १ को टोकाका जो उरण दिया है तो व: भी और उत्पादको सर्वथा एक सिद्ध नहीं करता। माल वह उस क्रमको बतलाता है जिन कासे घालिया कर्मों का अभाव होने पर केवलज्ञान पर्याय प्रगट होती है। अत: प्रकृतमें यही निर्णय करना चाहिए कि अज्ञान-मावके निमित्तम चार घातिमामामोंका अभाव होने पर केवलज्ञान परका अपेक्षा किए बिना हो स्वभावके आश्रयसे प्रगट होता है। तत्त्वार्थसूत्रके "मीहक्षयान्' इत्यादि सुत्रका पही स्पष्ट आशय है और इसी आशय से उसमें हेतुपरक पंचमी विभक्तिका प्रयोग हुआ है।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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