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प्रथम दौर
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नमः श्रीवीतरागाय
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी | मंगलं कुंदकुंदाय जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
शंका १६
निश्चय और व्यवहारजयका स्वरूप क्या है ? व्यवहारनयका विषय असत्य है क्या ? असत्य हैं, तो अभावात्मक हैं या मिथ्यारूप है. ?
समाधान १
इस लोक में जितने भी पदार्थ उपलब्ध होते हैं उनका परस्पर में ( एक पदार्थका दूसरे पदार्थ में ) अत्यन्ताभाव होने पर भी यह जोव अनादि अज्ञानवश संयोगको प्राप्त हुए पदार्थोंमें न केवल एकत्व बुद्धिकी करता आ रहा है, अपितु स्वसहाय होने पर भी परकी सहायता के बिना मेरा निर्वाह नहीं हो सकता ऐसी मिथ्या मान्यतावश अपनेको परतन्त्र बनाये हुए चला आ रहा है । अतएव इसे परसे भिन्न एकत्वस्वरूप अपने आत्माका सम्यक् ज्ञान कराने और पराश्रित बुद्धिका त्याग कराने के अभिप्राय से अध्यात्म में मुख्यतया निश्चयनय और व्यवहारयांका प्ररूपण हुआ है। यही कारण है कि श्री समयसारजोकी ४ थी गाथा में आचर्यवर्य इस संसारी जीवको लक्ष्यकर कहते हैं कि इस जीवने कामानुबन्धिनी और भोगानुafrat कथा अनन्त बार सुनो, अनन्तबार उनका परिचय प्राप्त किया और अनन्तवार उनका अनुभव क्रिया, परन्तु परसे भिन्न एकत्वको इसने आज तक उपलब्ध नहीं किया। आगे श्वों गाथाने कहते हैं कि 'मैं उस विभक्त एकस्वका अपने विभवसे ( आगम, गुरुउपदेश, युक्ति और अनुभव से ) दर्शन कराऊँगा । यदि दर्शन कराऊँ तो प्रमाण करना ।' आगे ६०७ वीं गाथाओं द्वारा अन्यकं निषेद द्वारा वह विभक्त एकव क्या है इसका ज्ञान कराया गया है । ११वीं गाथा में जिसे भूतार्थं कहा है वह इस विभक्त एकत्व भिन्न अन्य कुछ नहीं । अन्य जितना भी है उस सबकी परिगणना अभूतार्थमे की गई है । इस प्रकार यो समयमारजीको सम्यक्रूपसे हृदयङ्गम करने पर ज्ञात होता है कि प्रकृतमें निश्चयनय और व्यवहारनय कथनसे आचार्य महाराजको क्या इष्ट है ।
यह वस्तुस्थिति है । इसे ध्यान में रखकर निश्चयनयका निर्दोष लक्षण क्या हो सकता है इसकी मीमांसा करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र समयसारजोकी ५६ वीं गाथामें कहते हैं
निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितस्वात्केवलस्य जीवस्य स्वाभाविक भावमवलरूयोष्ठषमानः परभावं परस्य सर्वमेव प्रतिषेधयति ।
अर्थः- निश्चयनय तो द्रव्याश्रित होनेसे, केवल एक जीवके स्वाभाविक भावका अवलम्बन लेकर प्रवर्तमान होता हुआ, दूसरेके भावको किंचित्मात्र मी दूसरेका नहीं कहता ।