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यादर और सूक्ष्मरूप
तीन लोक निष्पन्न हूं ॥७६॥
जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा
परिणत स्कन्धोंको पुद्गल कहना यह व्यवहार है। वे छः प्रकारके हैं जिनसे
यह आचार्य श्मन है। इससे स्पष्ट है कि मुगलोंके पर्यायरूप निर्वाचित स्कन्धको पुल कहना यह कथन जब कि व्यवहार हैं ऐसी अवस्था में मिट्टीको पौद्गलिक य मानकर मिट्टीरूप व्ययोग्यताको घटोत्पत्ति में कारण कहावत तो ठहरेगा ही। यहाँ सर्वप्रथम मिट्टी में पुद्गला हारकर मिट्टीको सर्वा पुद्गल स्वीकार किया गया है और फिर इस आधार मिट्टी में विद्यमान मृतिकात्यरूप पर्या द्रव्ययोग्यतारूपसे नित्य मानकर घटकार्य में द्रव्ययोग्यताको कारण कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि अपर पका यह समस्य कथन व्यवहार नयको मुख्यतासे ही किया गया है, अपर अपर पक्षने जितना भी विवेचन किया है वह सब व्यवहार कथन ही है, यथार्थ कथन नहीं ऐसा जानना चाहिये ।
अगर पक्षने यहाँ पर यह भी लिखा है कि 'खानसे लेकर भट बनने तक मिट्टीकी सत्र अवस्थाएँ कुम्भकारके व्यापार के अनुसार ही हुआ करती है' किन्तु यहाँ पर प्रश्न यह है कि मिट्टीको उन अवस्थाओंको उत्पन्न कौन करता है-कार या स्वयं मिट्टी ? यदि करता है यह कहा जाय तो परिणामी परिणाम अभिन्न होने के कारण मिट्टीकी सव अवस्थाओं और कुम्भहारमें अभेद प्राप्त होता है। यदि मिट्टी स्वयं कर्ता होकर अपनी पर्यायोंको उत्पन्न करती है यह कहा जाय तो कुम्भकारके व्यापार के सहयोग से स्नानरो लेकर घट बनने तक के मिट्टी के सब कार्य होते हैं इसका क्या तात्पर्य है यह स्पष्ट होना चाहिए | क्या उक्त कथनका यह वात्पर्य है कि कुम्मकारके व्यापार के अभाव में मिट्टी के उक्त कार्य नहीं होते या कुम्भकारके व्यापारके द्वारा मिट्टी के उक्त कार्य होते हैं ये दो प्रश्न हैं? इनमें से प्रथम पक्ष तो इसलिए ठीक नहीं, क्योंकि कुम्भकारका व्यापार कुम्भकारमें होता है और मिट्टीका व्यापार मिट्टी में होता है, एकके व्यापार में दूसरे व्यापारका सर्वथा अभाव है। इस दृष्टिसे यदि यह कहा जाय कि खानसे लेकर घट बनने तक मिट्टीने जितने भी कार्य किये हैं वे सत्र निश्चयसे परनिरपेक्ष ही किये है तो इसमें कोई अत्युक्ति न होकर यथार्थता ही है। कुम्महार भले ही मिट्टी में कार्य करने का विकल्प करे और अपना योगव्यागार करे। मिट्टीको तो उसकी खबर भी नहीं। वह तो मात्र अपने-अपने कालमें होनेवाले व्यापारमें रत रहती है, क्योंकि प्रत्येक समय में अपना व्यापार करना यह उसका स्वभाव है। ऐसा नियम है कि कोई किसीके स्वभावको बना नहीं सकता ।
यदि कहा जाय कि मिट्टोको भले ही खबर न हो, कुम्भकारको हो खबर है कि मेरे द्वारा अमुक प्रकारका व्यापार करनेपर गिट्टीको अमुक प्रकारले परिणमना ही पड़ेगा तो इसपर प्रश्न यह है कि कुश्शार कभी भी किसी भी प्रकारसे उसे परिणमा सकता है या उसके अमुक प्रकार से परिणमनेका काल आनेपर वह उसे उस प्रकारसे परिणमाता है ? प्रथम गक्ष के स्वीकार करने पर तो सभी ग्योंके सभी परिणमन न केवल पराधीन प्राप्त होते हैं, अपितु उनके परिणमनेकर कोई क्रम नियत करना भी कठिन हो जाता है। इतना ही क्यों ? यदि एक अन्य दूसरे में किसी भी समय किसी भी प्रकारके परिणामको उत्पन्न कर सकता है तो वह उस दूसरे द्रव्यको अपने रूप बना ले अर्थात् जसको चेतन बनाने ऐसा स्वीकार करने में बाधा हो क्या रह जाती है इसका अपर पक्ष विचार करे।
यदि अवर पक्ष कहे कि जड़को चेतन बनाना दूसरो बात है और दूसरे द्रव्यमें किसी भी समय किसी भी प्रकार परिणामको उत्पन्न कर देना दूसरी बात है । तो इसपर हमारा कहना यह है कि प्रत्येक द्रव्य में