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________________ शंका ६ और उसका समाधान ४६९ मिट्टी पुद्गल की पर्यायरूपसे कारण नहीं बन रही है, किन्तु स्वयं एक पौगलिक द्रव्यरूपसे ही बन रही है' आदि। महावर अपर पक्षने अपने उक्त अभिप्रायको ध्यान रखकर जो कुछ भी लिखा है यह केवल योग्यताको उपादान माननेपर आनेवाली आपत्तिका वारण करने के लिए लिखा है। हमारी तरफसे यह आपत्ति उपस्थित की गई थी कि यदि उपादानका अर्थ इव्ययोग्यता करके बाह्य-सामग्री बलपर प्रत्येक कार्यको उत्पत्ति मानी जाती है तो बनाने की उत्पत्ति हो जानी चाहिए। स्पष्ट है कि अपर पक्ष अपने प्रस्तुत कथनद्वारा उसी शपतिका परिहार करणे पेष्टा कर रहा है और अपने इसी अभिप्रायको पुष्टिके लिए उसके द्वारा मिट्टी आदि स्कों को अवस्थित मानकर अनादि-अनन्त सिद्ध करके नित्य भी सिद्ध किया गया है किन्तु अपर पका है यह सब कथन भ्रमोत्पादक ही कारण कि एक तो मिट्टी आदि पुद्गल न तो सदा एक समान बने रहते हैं, उनमें प्रति समय अगणित गये परमाणुओंका संघात और पुराने परमाणुओंका भेद होता रहता है। दूसरे उनमें जो मिट्टी आदिरूपसे अन्य प्रतिभासित होता है उसका मुख कारण सवृषा परिणाम हो है, अन्य धर्म नहीं तीसरे जो वर्तमान में मिट्टी आदिरूप है यही कब अपने संवाद और भेदभाव के कारण जलादिरूप भी परिणम जाता है। यह अनुभव आता है कि जो वर्त मानमें गेहूँरूपये प्रति समय परिणम रहा है वही मनुष्यादिद्वारा मुक्त होने के बाद बात बनकर बना आदि भी परिणम जाता है, इसलिए मिट्टी आदि नरके अपने पक्षका समर्थन करना ठीक नहीं है। चाहे परमाणुरूप ही या उनकी स्कन्ध पर्याय मिट्टी वि उनसे उत्तरकालमें जो भी कार्य होता है वह असाधारण उपयोग्यता और प्रतिविशिष्ट पर्यायोग्यता इन दोनोंके योग में ही होता है और इसके आधारपर उनके प्रत्येक समयके कार्य विभाजन होता जाता है। खानमें पड़ी हुई मिट्टी दूसरे समय में या अन्तर्मुहूर्त आदि कालक अन्य किसी परिणामरूप हुए विना मात्र घटपर्याय को ही उत्पन्न करे तब तो यह कहना शोभा देता है कि मिट्टी पुद्गल द्रव्यकी पर्यायरूपसे कारण नहीं बन रही है, किन्तु स्वयं एक पौद्गलिक द्रव्यरूपसे ही बन रही है। मिट्टी स्वयं पुद्गल दृश्य नहीं है, किन्तु अनन्त पुद्गल द्रव्योंकी स्कन्धरूप एक पर्याय है, अतः वह प्रतिसमय सदृश परिणामद्वारा प्रतिविशिष्ट पर्याय होकर ही उत्तर कार्यकी उत्पत्ति में कारण बनती है और यही कारण है कि उससे जायमान उत्तर कार्योंमें मिट्टी व्यव हार गौण होता जाता है। साथ हो जैसे पुद्गलसे जायमान सबका गुद्गलकर अन्वय देखा जाता है उस प्रकार मिट्टी से परिणाम प्रजायमान तब कार्योंमें मिट्टीका अम्बद नहीं देखा जाता। पुद्गल अन्य किसी परिणामको नहीं उत्पन्न करता है, क्योंकि उससे जो मोय होती है वही होतो है, किन्तु यह स्थिति मिट्टीकी नहीं है। यही कारण है कि मिट्टी आदिको स्वतन्त्र द्रश्यन स्वीकार कर लोंकी मात्र स्कन्धरूप पर्याय स्वीकार किया है। स्पष्ट है कि मिट्टी की जो घटको उत्पत्ति में कारण कहा गया है वह प्रत्येक समय के सदृश परिणामवश हो कारण कहा गया है, अन्य धर्मके कारण नहीं। सदृश परिणाम अभ्यय धर्मका व्यवहार करना यह उपचार है। प्रयोजनवश आचार्योंति भी ऐसे व्यवहारको स्वीकार कर कथन किया है इसमें सन्देह नहीं, परन्तु वहाँपर उनका दृष्टि इसारा पदविका ज्ञान कराना मात्र रही है उस परसे अपने गलत अभिप्रायको फलित करना उचित नहीं है कम्पों आचार्य कुन्दकुन्द यह व्यवहार है इसे स्पष्ट करते हुए पंचास्तिकाय में लिखते हैंबादर-सुडुमगाणं संभागं विवहारो । ते होंति उप्पारा तेस्रोस्कं जेहिं निष्पणं ॥ ७६ ॥
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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