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________________ ७२.६ जयपुर (स्वानिया) तस्वचर्चा सद्भावेऽपि मोक्षाभावात् । अज्ञानमेव बन्धहेतुः सदभावे स्वयं ज्ञानभूतानां ज्ञानिनां यहि त नियमशीलत:पत्रसृतिशुभकर्माभावेऽपि मोक्षसद्भावात् । अर्थ-ज्ञान हो मोका हेतु है। क्योंकि ज्ञानके अभाव में स्वयं हो अज्ञानरूप होनेवाले अज्ञानियोंके अन्तरंग में व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभकर्मोका सद्भाव होनेपर भी मोक्षका अभाव है तथा अआन हो बन्धका कारण है, क्योंकि उसके अभाव में स्वयं ही ज्ञानमय होनेवाले ज्ञानियों के बाह्य व्रत नियम, शील, प इत्यादि शुभ होनेपर भी मोलका सद्भाव है। इस गाथायें अज्ञानभावका निषेध है और ज्ञानभावका समर्थन किया गया है आदाय यह है कि यदि अज्ञानभाव के साथ व्रत, शील और तर हों तो भी वह ( अज्ञानभाव ) एकमात्र संसारका कारण है। तथा ज्ञानभाव के होनेपर भी कदाचित् व्रत, नियम, शील और तप न भी हों तो भी बह ( ज्ञानभाव ) मोका हेतु है । नियम यह है कि अधिक अपुग परावर्तनप्रमाण काल के शेष रहनेवर जीव काललम्पिके प्राप्त होनेपर आत्मन् पुरवार्यद्वारा उपकरण अपूर्व करण और अतिवृतिकरण परिणाम करके अज्ञानभावका अ करसम्पादनको प्राप्त होता है। अधिक-से-अधिक कितना काल रहनेपर संसारी जीव दर्शनको प्राप्त करता है इस तथ्यका यह सूचक धवन है। कम-से-कम संसारका अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहमेवर जीव सम्पदर्शनको प्राप्त करता है। ऐसी अन्य कालके मीतर-भीतर गुणस्थान परिपाटीसे अयोगिकेवली होकर मोक्षका पात्र होता है। सम्यग्दर्शनको प्राप्त करनेका मध्यका काल अनेक प्रकार है । उक्त उल्लेख में आया हुआ 'शाम' पद सम्यग्दर्शनका और 'अज्ञान' पद मिध्यादनका सूचक है। इसका तात्पर्य यह है कि जब तक इस जीवको सम्यदर्शनको प्राप्ति नहीं होती तब तक अन्य परिचय मोनाको दृष्टि है यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्दने सम्यादको धर्मका मूल बताते हुए I लिखा है- दंसण धम्मो सं सोऊण सकये बट्टो जिणवेरहिं सिस्साणं । दंसहीणो ण बंदिवी ॥२॥ सम्यग्दर्शन धर्मका मूल है ऐसा जिनदेवने शिष्योंको उपदेश दिया है। उसे अपने कानोंसे सुनने के बाद सम्यग्दर्शनशून्य पुरुष की वन्दना नहीं करनी चाहिये ||२| मोक्ष आत्माकी शुद्ध स्वतन्त्र पर्यायका दूसरा नाम है, इसलिए देव, मन, वाणी, द्रव्यकर्म, भावकर्म और स्त्री-पुत्रादिभि अपने आत्मस्वरूपका जबतक सम्यक भान नहीं होता तबतक धर्म क्या है इसका सम्यक निर्णय करना हो असम्भव है। सम्पददर्शन ही एक ऐसा अलौकिक प्रकाश है जो अनादि अज्ञानरूपी प्रगाढ़ अन्धकारका भेदन कर ज्ञानानन्द चिच्चमत्कारस्वरूप शुद्ध आत्मतत्वका दर्शन कराने में समर्थ होता है । ऐसे स्वरूप निश्वयहोने पर हो परवार देव गुरु और वास्के पापको तथा जीवादिनी पदाची प्रतीत होत है। देवगुरु और ओबादि नौ पदाचोंके सभ्य स्वरूपपर सम्यक् प्रकाश डालनेवाली सच्ची जिनवाणी है। वीतराग, हितोपदेशी और सर्वज्ञ ही यथार्थ देव है तथा मोक्षमार्ग में लीन परम तपोनिधि वीतराग गुरु ही गुरु हैं। विचारकर देखनेर मेरी आमाका स्वरूप इनके स्वरूपसे भिन्न नहीं है, क्योंकि द्रव्यदृष्टिसे अवलोकन करनेपर इनके स्वरूपसे मेरे स्वरूप में अणुमात्र भी अन्तर नहीं है। इस प्रकार अपने आत्माके स्वरूपको देव और गुरुके स्वरूपसे मिलाकर इसको भय और भीममें सहज उदासीन वृत्ति हो जाती है।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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