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________________ शंका १६ और उसका समाधान ७६५ 'व्यवहारका विषय एक द्रव्यको पर्याय है' यह लिखकर अपर पक्षने भेद विवक्षा में मात्र सद्भूत व्यवहारका निर्देश किया है। किन्तु एक अद्भूत व्यवहार भी है जिसका विषय मात्र उपचार इसे अपर पण भुला देता है | अपर पसने यहाँपर पद्मनन्दिवशितिका के जिस वचनको उद्भुत किया है उनमें 'मुख्योपचारविवृति' पद आया है जिससे निश्चयके साथ दोनों प्रकारके व्यवहारको सूचना मिलती | यदि ब उसमें आये हुए 'उपचार' पवसे केवल सद्भूत व्यवहारको हो स्वीकार करता है तो हम पूछते हैं कि वह 'जीवित शरीरको क्रिया से धर्म होता है' इस कथनको क्यों नहीं त्याग देता । उसे चाहिए कि वह यह स्पष्ट शब्दोंमें घोषणा कर दें कि जीवित शरीरको क्रियारो त्रिकालमें धर्म नहीं हो सकता और साथ हो उसे यह भी घोषणा स्पष्ट शब्दोंमें कर देनो चाहिए कि एक व्यका परिणाम दूसरे द्रव्यका कार्य अणुमात्र मी नहीं कर सकता। इतना ही क्यों उसे तो उक्त वचनके आधारसे यह भी घोषित कर देना चाहिए कि जितना भी व्यवहार है वह मोक्षप्राप्तिका यथार्थ हेतु तो त्रिकालमें नहीं है । उसमे मात्र निश्चयका ज्ञान होता है, इसलिए उसे आगम में स्थान मिला हुआ है । 'पर्यायों का समूह द्रव्य है अथवा गुण और पर्यायवाला द्रव्य है' अपर पक्ष के इस कथनको हम स्वीकार करते हैं और इसी लिए हमारा कहना यह है कि जिस समय जो पर्याय उत्पन्न होती है वह पर्यायस्वरूप द्रव्यका स्वकाल होनेसे निश्चयसे उसे वह द्रव्य स्वयं उत्पन्न करता है | यदि वह पक्ष इसे स्वीकार नहीं करेगा और ऐसा मानेगा कि प्रत्येक पर्यायको दूसरा द्रव्य उत्पन्न करता है तो पर्याय समूहस्वरूप द्रव्यका कर्ता भी अन्य द्रव्यको मानना पड़ेगा जो मामना न केवल आगम के विरुद्ध हैं, अपि तु तर्क और अनुभव के भी विरुद्ध है । अतएव अपने इस वक्त आवासर भोर पक्षको यही मान लेता हां श्रेयस्कर प्रतीत होता है कि प्रत्येक द्रव्य अपने नितकाल में नियत कार्यको हो करता है। और पद्मनन्दिपंचविशतिका के आधारपर उसे यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि 'एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कार्य करता है इस प्रकारका व्यवहार वजन 'प्रत्येक द्रव्य अपने नियत कालमें अपने नियत कार्यको स्वयं कर्ता होकर करता है' इस निश्चय वर्षातका ज्ञान कराने के लिए आगम में लिखा गया है। अनगारधर्मामृत के 'कन्नथा वस्तुनो भिन्नाः १-१०२ वचन भी इसी लक्ष्यको स्पष्ट करने के लिये लिखा गया है। समयसार गाथा और उसकी टोकाका भी यही आशय है । सम्यदर्शन की उत्पत्ति लिए द्रव्य, गुण, पर्यायका वे जैसे है वैसा ज्ञात होना अतिआवश्यक है । किन्तु सम्वरदर्शनको उत्पत्ति कैसी होती है यह प्रश्न दूसरा है। इतना अवश्य है कि सम्यग्दृष्टिको इनका यथार्थ श्रद्धान अवश्य होता है, इसलिए उनके सम्यग्दर्शनविनय भी बन जाती है। मूलाधार अ०५, गा० १८६ का यही आशव है। सम्यग्दृष्टि अर्थपर्यायोंके विषय में किस आधारसे कैसो श्रद्धा होकर दर्शनविनय गुण प्रगट होता है यह इस गाथा में बतलाया गया है। ३. अपर पक्षने 'जो व्यवहारनयके बिना मात्र निश्चयके माश्रयसे मोक्ष चाहते हैं दे मूढ़ हैं, क्योंकि बोज विना वृक्षफल भोगना चाहते हैं अथवा वे आलसी हैं।' यह लिखकर उसकी पुष्टि अनगारधर्मामृत अ० १ श्लो १०० से करनी चाहो है । किन्तु अनगारबर्मामृत में वह उल्लेन एकान्त निश्चयाभासियों का निषेध करने के लिए बाया है इसे अपर पक्ष जानते हुए भी हमारे दृष्टि पथमें नहीं लाना चाहता है । बहुत है कि इसी कारण अपर पक्षने यह वचन किस शास्त्रका है यह न बतलाकर 'व्यवहार पराचीनो' इत्यादिरूपसे उक्त श्लोको उद्धृतकर उसके अन्त में 'प्राचीन श्लोक' यह लिखकर छुट्टी पाली
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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