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________________ ६७० जयपुर (स्लानिया ) तत्त्वचर्चा बहिरंग) निमित्ताधीन जो कार्य हो गया वह ही उसका स्वकाल है। प्रतिसमय परिणमद करना द्रव्यका स्वभाव है, किन्तु अशुद्ध द्रव्य के अमुक समय अमुक ही पर्याय होगी ऐसा सर्वथा नियत नहीं है। जब काल, सर्वथा नियत नहीं सो आगे-गीछेका कोई प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। इसका विशेष विधचन प्रश्न नं०५ में है। आप लिखते है जिस प्रकार कर्मोदय-उदोरणा है, उसी प्रकार राग हेप परिणाम भी हैं। अत: कर्म आत्माको बलात् परतंत्र रखेगा और राग द्वेष परिणाम बलात् कर्म बंध कराता रहेगा। ऐमी व्यवस्था में यह आत्मा त्रिकाल में बन्धनसे टूटने के लिये प्रबल पुरुषार्थ कभी नहीं कर सकेगा और प्रबल परुषार्थक अभा में मुक्तिको व्यवस्था नहीं बन सकेगी।' जो कर्मशास्त्रसे अनभिज्ञ है उनको इस प्रकारकी शंका उठा करती है, किन्तु जो कर्मशास्त्र के विशेषज्ञ है वे भलीभांति जानते है कि प्रत्येक समयमें जो द्रव्यकम बंधता है उसमें नाना वर्गणाएँ होती है और सभी वर्गणओम समान अनुभाग (फलदान शक्ति नहीं होती, किन्तु भिन्नभिन्न वर्गणाओंमें भिन्न-भिन्न अनुभाग अर्थात किसी वर्गणामें जघन्य किसी में मध्यम और किसों में उत्कृष्ट अतु. भाग होता है। मध्यम अनुभागके अनेक भेद है और वर्गणा भी नाना है। इस प्रकार जिस समय जमा अनुभाग उदयमे माता है जो अनुरूप का परिणाम होते है, क्योंकि कर्म के अनुभवनका नाम उदय है । कर्मणामनुभवनमुदयः । उदयो मोज्यकालः । -प्राकृतपंचसंग्रह प०६७६ भारतीय ज्ञानपीठ अर्थात कर्मका अनुभवन उदय है और कर्म के भोगनेका काल ही उदय है। हर समय एक प्रकारका उदय नहीं रहता, क्योंकि वर्गणाओंके अनुभागमें तरतमता पाई जाती है। जिस समय मंद अनुभाग उदयम आता है उस समय मंद कपाषरूप परिणाम होते है और उस समय ज्ञान व वीर्यका वायोपशमविशेष होनेसे आत्माको शक्ति विशेष होती है। उस समय यदि यथार्थ उपदेश आदिका बाह्य निमित्त मिले और यह जीव तत्त्वविचारादिका पुरुषार्थ करे तो सम्यक्त्व हो सकता है । जैसे जिस समय नदीका वगाय मंद होता है उस समय मनुष्य यदि प्रयत्न करे तो पार हो सकता है । यह ही प्रश्न श्री ब्रह्मदेष सूरिके सामने भी उपस्थित हुआ था। उन्होंने बुहब्यसंग्रह गाथा ३७ को टोकामें इस प्रकार समाधान किया है जो ध्यान देने कोग्य है यहाँ शिष्य कहता है-संसारी जीवके निरन्तर कर्मबन्ध होता रहता है, इसी प्रकार मोंका उदय भी होता रहता है, शुद्ध आत्मध्यानका प्रसंग ही नहीं, तब मोक्ष कैसे हो सकती है? इसका उत्तर देते हैंशत्रुको निर्दल अवस्था देखकर जैसे कोई बुद्धिमान विचार करता है कि यह मेरे मारने का अवसर है, इसलिये पुरुषार्थ करके शत्रुको मारता है । इसी प्रकार कमांकी भी सदा एकरूप अवस्था नहीं रहती, स्थिति औ अनभागकी न्यनता होने पर जब कर्म लघु अर्थात मंद होते हैं तब बसमान मध्य जीव, आगम भाषासे क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना प्रायोग्ण और करण इन पांच लब्धियों। और अध्यात्मभाषाम निज शुद्धात्माके सम्मुख परिणाममयी निर्मल भावना विशेषरूप खड्गसे पौरूष करके कर्म शत्रुको नष्ट करता है। इसी बातको इष्टोपदेशके टोकाकारने भी इन शब्दों द्वारा कहा है ऋत्य बि बालयो जीवो कस्थ वि कम्माइ हुप्ति बलियाई । जीवस्स य कम्मरस य पुश्वविद्धाइ बहराइ ।। -इटोपदेश गाथा ३१ टीका
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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