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शंका ९ और उसका समाधान अर्थ-कभी जीय बलवान होता है तो कभी कर्म बलवान हो जाता है। इस तरह जीव और कर्मों का अनादिसे त्रैर चला आ रहा है। इससे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि सदाकाल कर्मोदय एक प्रकारका नहीं रहता, इसलिये जब जोव बलवान होता है तब जीव अपना हित चाहता है जैसा कि इष्टोपदेश गाथा ३१ में कहा है
जीवो जीवहित .....
स्वस्वप्रभावभूयस्वे स्थार्थ को वा न वाञ्छति ।। अर्थात् जीव, जीवका हित चाहता है । सो ठीक हो है, अपने प्रभावके बढ़ने पर अपने स्वार्थको कौन नहीं चाहता । अर्थात् जीवके बलवान् हो जाने पर जीव अपना अनन्तसुखरूपी हित करता है ।
इन बागमप्रमाणोंसे सिद्ध हो जाता है कि कर्मको प्रेरक निमित्तकारण मानने पर भी मोक्षरूपी पुरुषार्थमें कोई कठिनाई नहीं आती।
प्रेमाणाः पुद्गला:' का जो वाध्य अर्थ है वह ही जिनागममें इष्ट है, क्योंकि शब्दोंका और अर्थका परस्पर वाच्य-वाचवराम्बन्ध है। इस सम्बन्धको स्वीकार न करके शब्दोंका यदि अपनी इच्छा अनुसार अर्थ किया जायगा तो सब विष्लन हो जायगा संसारमें कोई व्यवस्था न रहेगो । 'प्रेक्षमाणाः' शब्दसे यदि आचार्यों को प्रेरक अर्थका बोध कराना इष्ट नहीं था लो वे अन्य शब्दका प्रयोग कर सकते थे। अत: आपका यह लिखना 'आगम में प्रेयमाणाः पुद्गलाः इत्यादि वचन पढ़कर प्रेरक कारण स्वीकार करना अन्य बात है पर उसका जिनागममें क्या अर्थ इष्ट है इरो समश कर सम्यक् निर्णयपर पहुंचना अन्य बात है।' ठीक नहीं है, क्योंकि स्वइच्छा अनुसार अर्थका अनर्थ करके अपनी गलत मान्यताको पुष्ट करना उचित नहीं है।
आपने जो समयसार गाथा ११६ का टीकार्थ उद्धृत किया है उससे यह सिद्ध नहीं होता कि जीव परिणाम निमित्त बिना ही पुद्गल द्रव्य कर्मभावरूप परिणम जाता है । उसमें तो मात्र उन अन्य मतोंका खण्डन किया है जो द्रव्यको सर्वथा अपरिणामी अर्थात् नित्व कूटस्थ मानते हैं। यदि आपके अभिप्रायानुसार यह मान लिया जावे कि आत्मपरिणाम निमित्त बिना पदगल कर्मभावहा परिणम जाता है तो समयसार गाया ८०.८१ से विरोष आ जायगा जिस में 'जीवपरिणामहेदु' शब्द है।
करता है, परिणमाता है. उत्पन्न करता है. ग्रहण करता है, त्यागता है, जांधता है, प्रेरता है' इत्यादि शब्दों द्वारा आगममें प्रायः प्रेरकनिमित्तको सामथ्र्यको प्रकट किया है। स्त्रकालका उत्तर ऊपर दिया जा चुका है। रामयसार गाया १०७ व उसकी टोकासे स्पष्ट है कि वह गाथा निमित्तकारणकी अपेक्षासे नहीं लिखी गई, किन्तु उपादानकी अपेक्षा लिखी गई है। जैसा कि टोकामें व्याप्यव्यापक' शब्दसे स्पष्ट है। इससे प्रेरक निमित्तकर्ताका खण्डन नहीं होता । निमित्तकर्ताको आपने स्वयं प्रश्न नं०१ब प्रश्न नं०१६ के उत्तरमें स्वीकार भी किया है।
श्लोकवातिक ए० ४१. का कथन प्ररक निमित्तकारणके विषयमें नहीं है, किन्तु धर्मादि द्रव्योंके विषयमें है जो अप्रेरक हैं। दूसरे निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध निश्चयमयका विषय नहीं है, किन्तु व्यवहारनयका विषय है, क्योंकि दो या दोसे अधिक भिन्न वस्तुओंका परस्पर सम्बन्ध व्यवहारनयका विषय है। जैसा कि 'भिन्नवस्तुविषयाऽसद्भुतन्यवहारः।' आलापपद्धतिमें कहा है और बापने भी इसी प्रश्न प्रथम तत्तरमें माना है। इसीलिये थो श्लोकवार्तिक १०४१. पर यह स्पष्ट लिख दिया है कि 'व्यवहारमयको अपेक्षास विचार करने पर ही मुत्पादादिक सहेतुक प्रतीत होते है।' और पृ० १५१ पर भी लिखा है- 'व्यवहारनयका