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जयपुर (खानिया ) तब चर्चा
आश्रय करने पर कार्य कारणभाव दो पदाथोंमें रहनेवाला भाव सिद्ध होता है वह वास्तविक है, काल्पनिक नहीं है, सर्वया निर्दोष है।'
६ ९० १९९ में
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रति तथा देवगति, समचतुरस्वसंस्थान आदि ११ शुभनामकर्म व गोत्र कमका उत्कृष्ट स्थितिबंध दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम बतलाया है और सूत्र १८ में नपुंसकबंद, अरति शोक, भग, जुगुच्छा तथा नरकगति तिर्यग्यगति, एकेन्द्रियजाति पंचेन्द्रियजाति आदि नामकर्मकी प्रकृतियोंका व नीमगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबंध बीस कोकोही सागरोगन कहा है। इसपर प्रश्न स्वाभाविक है कि नोकषाय, नामकर्म व गोत्रको उत्तर प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबंध एक समान होना चाहिये यह विभिन्नता क्यों ? इसका उतर भी वीरसेनस्वामीने पृ० १६४ में दिया है उसका तात्पर्य यह है कि
(१) मूत्र १६ को प्रकृतियोंकी अपेक्षा सूत्र १८ को प्रकृतियोंमें विशेषता है, इसलिये इनके उत्कृष्ट स्थितिबंध में मर है।
(२) सभी कार्य एकान्तसे वाह्य अर्थ ( कारण ) को अपेक्षा करके ही नहीं उत्पन्न होते । इसलिये कहीं पर भी अंतरंग कारण ही उपादान कारणके समान } कार्यको उत्पति होती है ऐसा निश्चय करना चाहिये ।
यहाँ पर शालि धान्यके बीजसे जोको उत्पतिका निषेध करने से भी यह ही फलितार्थ होता है कि अंतरंग कारणसे ही अर्थात् उपादानकारणके समान ही कार्यको उत्पत्ति होती है, क्योंकि,
उपादानकारणसदृशं कार्यं भवतीति वचनात् ।
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अर्थात् उपादानकारणके सदृश कार्यकी उत्पत्ति होती है ऐसा आगमका वचन है। मं० २में 'कान्स' शब्द पर ध्यान देने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस नं० २ में उनको मान्यताका निषेध किया गया है जो उपादानको शक्ति बिना हो ना निमित्तकारणों से कार्यको उत्पत्ति मानते है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि निमित्तकारणोंके विना हो कार्यको उत्पत्ति हो जायगी। 'एकान्तमेादके प्रयोग को कोई आवश्यकता में थी कार्य उपादान के सदृश होता है तथापि ऐसा भी नहीं है— उसपर बाह्य कारणोंका प्रभाव न पड़ता हो ! बहके बही बीज होनेपर भी भूमिकी विपरीततासे निष्पत्ति ( फल ) की विपरीतता होती है, अर्थात् भूमिमें उसो वोजका अच्छा अन्न उत्पन्न होता है और खराब भूमिमें वही अन ख़राब हो जाता है वा अन्न उत्पन्न हो नहीं होता ( प्रसार गाथा २५४ को टीका | इसी प्रकार वा अरु एक हो प्रकारका हैं, किन्तु नीम के वृक्ष सम्बन्यसे वह कटुक रसरूप परिणम जाता है और इसके ससे वह मधुर रस परिणम जाता है । इस प्रकार के अनेकों दृष्टान्त आगम में दिये गये हैं और प्रत्यक्ष भी अनुभव में आते हैं । इस प्रकार धवल पू६० १६४ से निमित्तकारणका लण्डन नहीं होता, मात्र इतना सिद्ध होता है कि उपादानके कार्य होता है। लोगे लोहे के आभूषण बनेंगे और सुवर्ण आभूषण यी यह वो नियम है तु अमुक अमुक ही आभूषण बनेगा ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि काको उत्पति अंतरंग और बहिरंग निताधीन है ऐसा वस्तुस्वभाव है। (स्वयंभू ६० ) अनः यह लिखना ' कार्यको उत्पत्ति मात्र । | 'सत्र अंतरंग कारणसे ही होती है।' एकान्त मिथ्यात्वका द्योतक सभा आगम व प्रत्मविरुद्ध है तथा स्ववचन बाधित भी है क्योंकि आप ०११ के प्रथम उत्तर में स्वभाव पर्याय में कालादि साधारण निमित्त तथा विकारी पर्याय विशेष निमित्त स्वीकार किये हैं। इसी प्रकार अन्य प्रश्नो के उत्तर भी आपने अंतरंग और