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शंका ६ और उसका समाधान न कहकर अपने पूर्व (अनन्तर पूर्व) परिणामको उपादान कहा गया है । यहाँ पर 'पूर्वस्वपरिणाम' पदसे जहाँ असाधारण दृश्यप्रत्यासत्तिका ज्ञान हो जाता है वहाँ सममातर पुर्य पर्यायप्रत्यासत्तिका भी ग्रहण हो जाता है। ऐसी अवस्थाम 'प्रत्येक समबमें उस उस पर्याय मुक्त द्रव्य अगले ममयका उपाधान होता है और जिसका वह अगादान होता है उसे अगले समयमें उमो कार्यको जन्म देना है तथा कार्यकालमें बाह्य सामग्री भी उसीके अनुकूल मिलती है' इस तथ्यकी पुष्टि होकर प्रत्येक कार्यका स्वकाल निश्चित हो जाता है । अपर पक्ष यदि इस तथ्यको स्वीकार कर ले तो प्रत्येक कार्य में निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीमा फ्या स्थान है इसका निर्णय करने में आसानी जाय ।
आगममें 'बाह्य दण्डादिसापेक्ष मिट्टी ही स्वयं' ऐसा कथन आला है । इस परसे अपर पक्षका स्पाल है कि उपादानको निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्म सामग्रोको तबतक प्रतीक्षा करनी पड़ती है जबतक वह प्राप्त न हो जाय । किन्तु देखना यह है कि आगममें 'बाह्य दण्डादिसापेक्ष' यह या इसी प्रकार के अन्य वचन किस दृष्टिसे लिखे गये हैं। का कोई भी वस्तु अपना कार्य करते समय महकारी गान कर अन्य वाह्य सामग्रीको प्रतीक्षा करती हैं या यह नयवचन है ? जो मात्र इरा वातको सूचित करता है कि अमुक प्रकारके कार्य में अमुक प्रकारको आभ्यन्तर उपाधिके साथ अमक प्रकारको बाह्म चपाधि नियमरो होती है। आगम (पंचास्तिकाय गा० १०.) में व्यवहारकालको 'परिणाममव' कहा है। इसकी व्याख्या करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र
तन कालो गिरलकानगोपनि जीवनाको परिणामेनावच्छिद्यमानश्वात्तत्परिणाममन इत्युपगीयते । जीव-पुद्गलानां परिणामस्तु बहिरंगनिमित्तभूतद्रष्यकालसगावे सति सम्भूतस्याद् द्रव्यकालसम्भूत इत्यभिधीयते । तत्रे तात्पर्यम्-व्यवहारकालो जीव-पुदलपरिणामन निश्चीयते, निश्चयकालस्तु तत्परिणामान्यथानुपपत्येति ।
वहाँ व्यवहारकाल निश्चय कालकी गर्यायस्वरूप हो कर भी जोवों और पुद्गलों के परिणामसे ज्ञात होने के कारण 'वह जीवों और पुद्गलों के परिणामसे उत्पन्न होता है। ऐसा कहा जाता है । तथा जीवों और गुद्गलोंका परिणाम तो बहिरंन निमित्तभनयकाल सद्भाव उत्पन्न होने के कारण 'पकालसे उत्पन्न हुआ है ऐसा कहा जाता है ।
पंचास्तिकाय गाथा २३ की टीकामें आचार्य अमृत चन्द्र इसी विषयको स्पष्ट करते हुए लिखते है
यस्तु निश्चयकालपर्यायरूपो व्यवहारकाल: स जीच-पुद्गलपरिणामेनाभिव्यज्यमानत्वात्तदायत्त एवाभिगम्यत एवेति ।
__ और जो निश्चयकालकी पर्यायरूप व्यवहार काल है वह जीव-पुद्गल के परिणाम में अभिव्यज्यमान होने के कारण उस (जीव-पद्गलोंके परिणाम) के अघोन ही ऐसा ज्ञात होता ही है।
अब देखना यह है कि यहाँ पर जो व्यवहारकालको जीव-पुद्गलोंके परिणामसे उत्पन्न होनेवाला या उनके परिणाम के अधीन कहा गया है वह एक समगार अबहारकाल कितना है इस बात का ज्ञान करने के अभिप्रायसे कहा गया है या यथार्थ में कावहारकालको उत्पत्ति जीव-पगलों के परिणामसे होती है यह जतानेके लिये कहा गया है। दूसरा पक्ष ती ठीक नहीं, क्योंकि स्वयं आचार्यने पूक्ति उल्लेख द्वारा उसका निषेध किया है । प्रथम पक्षक स्वीकार करने पर यही सिद्ध होता है कि विस कार्य के होने में कौन बाह्य वस्तु निमित्त व्यवहारको प्राप्त होती है या जिस समय जो भी कार्य होता है उसका ज्ञान बाह्य और आभ्यन्तर जनाधिके