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________________ ४८२ जयपुर (वानिया ) तत्त्वचर्चा ऐसा मानना अन्य बात है। कोई भी समझदार कुम्भकार घटनिर्माणका विकल्प भी करता है तदनुक्ल व्यापार भी करता है और इसके लिए घटके योग्य मिट्टीका परिग्रह भो करता है। तदनुकूल आगेके व्यापारमै भी जुटता है पर उसे यह ज्ञान होता है कि यह मिट्टी घटपर्वायसे परिणत होनेवालो होगी तो ही होगो, मैं तो निमित्तगात्र हूं और घटकायमें तत्र निमित्तमात्र हूँ जव मिट्टी स्वयं घटकायके सम्मुख हो । मिट्टी के संग्रहमें निमित्त होते समय, उसे अपने घरतक क्षेत्रान्तरित होने में निमित्त होते समय तया जल और मिट्टी के संयोग आदिमें निमित्त होते समय जो मेरे मन में घर बनानेका विकल्प है और उस विकल्पको ध्यान में रखकर जो मैं अपनेको वर्तमान में घट बनाने का निर्माता करता है वह केवल भावी मैगमनयकी अपेक्षा असद्भुत व्यवहार वचन ही कहता हूँ । इस प्रकार जिसे भूवार्थका जान है वही अनेक असत् विकल्पोंसे अपनी रक्षा कर सकता , अन्य नहीं होगा - विक्षयोंको निमित्त कर होनेवाले बन्धनसे अपनी रक्षा कर सकता है, अन्य नहीं। मिट्री ही स्वयं घट बनती है, अन्य नहीं। पर वह किस अवस्था में घट बनती है इसे विवेकी अच्छो तरह जानते है । विवेको ग्रह भी अच्छी तरह जानते हैं कि घटपर्यायके सन्मुख हुई मिट्टी ही घटका अपादान है, खानमें पड़ी हुई मिट्टी नहीं। यदि कोई कुम्भकार स्वान में पड़ी हुई मिट्टीको वर्तमानमै घटका उपादान समझ ले तो अपनी ऐसी खोटी समझके लिए स्वयं पश्चात्ताप करना पड़ेगा या वह निर्णय कर ले कि इसे मेरी इच्छानुसार परिणमना पड़ेगा तो भी उसे कदाचित् पश्चाताप करना पड़ेगा । कोई मूह छात्र अध्यापकके मुख से पाठ सुनें, उनकी सेवा करें, 'न हि कृतमुपकार' इत्यादि वननका अक्षरशः पालन करे, परन्तु स्वर्ग अभ्यास न करे तो यह मुद ही बना रहेगा, स्वयं विद्वान् न बन सकेगा । अध्यापक तो तब निमित्तमात्र है जब वह छात्र अपनो मढ़ताको छोड़ कर स्वयं अभ्यासके सन्मुख होता है । इसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए। कुम्भ कारादि तब निमित्तमात्र हैं जब मिट्टी स्वयं अपने उत्तरोत्तर होने वाले परिणामों द्वारा स्वयं घट परिणामके सन्मुख होकर घटरूप परिणमती है । अपर पक्षने जितने उदाहरण दिये है ये सव लौकिक इसलिए हैं, क्योंकि वह पक्ष अपनी मचिरो उपादानको एक प्रश्यप्रत्यासत्तिरूप लिखकर उसे आगम सिद्ध करना चाहता है और उसे आधार बनाकर कार्यकारणभावकी पवस्था बनाना चाहता है। स्पष्ट है कि अपर पक्षने 'आ संसारत एव' इत्यादि कलशके आधार पर जो विचार प्रस्तुत किम है वे कार्यकारणभावको यथार्थ व्यवस्थाको स्पर्श नहीं करते, अतः त्याज्य है । यद्यपि उन कलशका भावय अन्तस्त्रम का उच्छेद करनेत्राला होनेसे अतिगूढ़ है, परन्तु यहाँपर हमने प्रकृतम प्रयोजनीय मात्र इतना आशय लिया है । उसका यथार्थ अर्थ ग्रहण करने पर तो 'मैं इस कार्यमें निमित्त हूँ' यह विकल्प भी वन्धका कर्म होनेसे हेय है। यह जीव भूसार्थके परिग्रहवारा स्वयं ज्ञानघन होकर बन्धनसे मुक्त हो जाय तब तो कहना होगा कि इसने आत्मनिधिका ही साक्षात्कार कर लिया । वहीं इस विकल्पको स्थान कहाँ । अस्तु, हमने अपने पिछले उत्तर में 'उपादानस्य उत्तरीभवनात्' का आशय साष्ट किया था। अपर पक्षका कहना है कि 'वह उत्तर पर्याय निमित्तसापेज उत्पन्न नहीं होतो ऐसा निर्णय तो उक्त मापस नहीं किया जा सकता है। अपने इभी कथनकी पुष्टि में अपर पक्षन 'वचनसामादज्ञानादिदोषः' (अ४० पृ० ५१) इत्यादि वचन भी उद्धृत किया है। यद्यपि अपर पक्षने इस वचनको अपने पक्षमें समला कर उपस्थित किया है, परन्तु इससे यथाय पर प्रकार पड़ने में बड़ो सहायता मिलती है इसमें सन्देह नहीं, क्योंकि इसमें एक द्रव्य प्रत्यासत्तिको उपाधान
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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