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________________ शंका ८ और उसका समाधान (१) समयमार गाथा ६८ में व्यवहारसे जिस कर्तुतका विधान किया है वह व्यबहारी जनोंका व्यामोह मात्र क्यों है इराका स्पष्टीकरण गाथा ६९ में करते हुए बतलाया है 'यदिभात्मा परद्रव्यांको करे तो वह उनके साथ नियममे तन्मय हो जाए। परन्तु तन्मय नहीं होता इस कारण वह उनका मर्ता नहीं है।' इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि एक ट्रम्पका दूसरे द्रव्यमें यथार्थ कर्तत्वका सर्वथा अभाव है। इस परसे यह सिद्धान्त फलित हुमा _ 'आत्मा व्याप्य-व्यापकभावसे तन्मयताका प्रसंग आने के कारण परद्रव्यों की पर्यायोंका कर्ता नहीं है।' इस सिद्धान्तमें आत्मा पदसे उपादानरूप आत्माका ग्रहण किया गया है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि निश्चमसे न सही, व्यवहारसे तो एक द्रव्यको दूसरे द्रब्यका कर्ता मानने में आपत्ति नहीं है। समाधान यह है कि ब्यबहारसे निमित्तपनेका ज्ञान करानेके लिए एक द्रव्यको दूसरे प्रख्यकी विवक्षित पर्यायका उपचारसे का कहा जाता है। इस कार्यका निश्चय कर्ता कौन है यह जान कराना इसका प्रयोजन है। (२) गाथा १०० में जोव परब्यको पर्यायोंका निमित्तनैमित्तिकमावसे भी कर्ता नहीं है, यह प्रतिपादन किया गया है। एमा प्रतिपादत करते हा प्रक्रम में जीवपदमे दुयाशिवामयना नियत आत्मा लिया गया है, क्योंकि यदि ऐसे जोकको परद्रपोंकी पर्यायौंका निमित्त-नैमितिकभावसे भी कर्ता मान लिया जाय तो इसके सदाकाल एकरूप अवस्थित रहने के कारण सदा ही निमित्तरूपसे कर्ता बनने का प्रसंग आयगा । किन्तु कोई भी द्रव्याथिकनयका विषयभूत द्रव्य परद्रव्यको पर्याप्रकी उत्पत्तिो व्यवहार हेतु नहीं होता ऐसा एकान्त नियम है । अतएव इस परसे यह सिद्धान्त फलित हुआ कि-- सामान्य आत्मा निमित्तनैमित्तिकभाषसे परद्रव्योंकी पर्यायोंका कर्ता नहीं है। अन्यथा नित्य निमित्तिकर्तृत्वका प्रसंग आता है। (३) ज्ञानी जोवके रागादिकका स्वामित्व नहीं है। इसलिए वह रागादिकके स्वामित्वो अभावमें परट्रव्योंकी पर्यायोंका निमित्त का नहीं बनता। साथ ही वह यह भी जानता है कि प्रत्येक व्यका प्रति समय परिणमन करना उसका स्वभाव है, उसमें फेर-फार करना किसीके आधीन नहीं । अन्य द्रव्य लो उस सस परिणमन में निमित्तमात्र है। इसलिए इसपरसे यह सिद्धान्त फलित हुआ कि अज्ञानी जीवके योग और उपयोग ( विकल्प ) परद्रव्योंकी पर्यायोंके व्यवहारसे निमित्त (४ ) ज्ञान भावके साथ अज्ञान भावके होने का विरोध है। इस परसे यह सिद्धान्त फलित हुआ कि आत्मा अज्ञान भावसे योग और उपयोगका कर्ता है, तथापि परद्रव्यों को पर्यायोंका कर्ता कदाचित् भी नहीं है। ( ५ ) ज्ञानभाव कहो या स्वभाव पर्याय दोनोंका एक ही तात्पर्य है । इस परसे यह सिद्धान्त 'फलित हमा कि आत्मा ज्ञानभावसे परद्रव्योंको पर्यायोंका भी निमित्तकर्ता नहीं है। ये ५ जिनागमके सारभूत सिद्धान्त है। इनके आधारसे हमारा उपहास किया जा सकता है, किन्तु
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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