SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शंका १३ और उसका समाधान ६८५ या खल परमार्थमोक्षहेतोरतिरिको व्रत-तपःप्रभृतिशुभकर्मात्मा केषांचिन्मोक्ष हेनुः स सर्वोऽपि प्रतिबिन्द्रः, तस्य इभ्यान्तरस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानमवनस्याभवनात् । परमार्थमोक्षहेतोरेकाष्यस्वभावस्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानभवनस्य भवनात् ॥१५॥ कुछ लोग परमार्थरूप मोक्षहेतुसे भिन्न जो व्रत, तर इत्यादि शुभ कर्मस्व मोक्षहेतु मानते हैं, उस समस्त ही का निषेध किया है, क्योंकि वह अन्य द्रव्यके स्वभाववाला (पगलस्वभाववाला है, इसलिए उस रूपसे ज्ञानका होना नहीं बनता। मात्र परमार्थ मोचहेतु हो एक दूवर समाववाला है, इसलिए उस रूपसे ज्ञानका होना बनता है ॥१५६।। ये कतिपय प्रमाण है जिनसे व्यवहार घमके स्वरूपपर यथार्थ प्रकाश पड़ता है । अपर पक्षने सम्यक्त्व व चारिवको मिषित अस्यण्ड पर्यायका नाम व्यवहारधर्म रखा है। इस कारण वह पत्र व्यवहारधर्मको बन्धस्वरूप और बन्धका कारण स्वीकार करने में अड़चन देख रहा है इसे हम अच्छी तरहसे समझ रहे हैं। किन्तु कहीं किस परिणामका क्या फल है, यदि यह बतलाया जाता है तो उसका अर्थ संसारमै घुमाना या संसारमें डुबाना नहीं होता है। बल्कि शानी उससे यही प्राशय ग्रहण करता है कि मुझे यह विकल्पको भूमिका भी त्यागने योग्य है । विकल्पमें है और उसे छोड़नेका पुरुषार्थ करना है यह भी तो ज्ञान की ही महिमा है। अपर पक्षका कहना है कि 'अतः इससे बन्ध होते हुए भी यह रागांश संसारका कारण नहीं हो सकता है ।' समाचान यह है कि आत्रब और बन्ध इन्द्रोंका नाम तो संमार है। रागमें जितने काल अटका है उतने काल तो संसार है ही। इसे संसार स्वीकार न करने में लाभ हो क्या ? एक रागपरिणामका बह माहात्म्प है कि उसके फलस्वरूा यन्न जोन कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तन काल तक यात्रव-वन्धको परम्परामें रचता-पचता रहता है। जिसका जो स्वरूप है उसे स्वीकार करने में हानि नहीं, लाभ है। अन्यथा विवेकका उदय होना असम्भव है। ज्ञानीके रागमें उपादेय बुद्धि नहीं होती यह भेदविज्ञानका माहात्म्य है, व्यवहारधर्मका नहीं। ___अज्ञानी भी स्वर्ग जाता है और ज्ञामो भी पुरुषार्थहीनता वश स्वर्ग जाता है । वहाँस च्युत होकर दोनों ही राजपुत्र होते है। धर्मोपदेश भो सुनते हैं आदि । क्या कारण है कि ज्ञानी उसी भवसे मोक्ष जाता है, अज्ञानी नहों। इससे साष्ट है कि बाह्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव न मोक्ष दिलाते हैं और न संसार हो । अपने अज्ञानका फल संसार है और अपने ज्ञानस्वभावके अवलम्बनका फल मोक्ष है। यहो परमार्थ सत् है । बाह्य द्रव्यादि निमित्त है यह तो व्यवहार है। इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हुआ कि पर्याय विभाव और स्वभावके भेदसे मुरूपतया दो ही प्रकारको है तथा उपयोग शुभ, अशुभ और शुद्धके भेदसे तीन प्रकारका है। उनमेंसे शुभोपयोग एक तो प्रशस्त रागरूप होता है, दूसरा अनुकम्पा परिणामरूप होता है और तीसरा नित्तम क्रोधादि कलुष परिणामके अभावरूप होता है। यह तीनों प्रकारका उपयोग प्रशस्तविषयक शुभरागसे अनुरंजित होता है, इसलिए यह स्वयं आस्त्र व-वन्यस्वरूप होनेसे बन्धका कारण भी है। पंचास्तिकाय गा.८५ को टोकामें आचार्य जयसेनने 'गतिपरिणत जोवों और पुदगलोंको गतिमें धर्मद्रव्यको निमित्तताका समर्थन करनेके अभिप्रायसे 'निदानरहितपरिणामापार्जित-' इत्यादि वचन लिखा है । सो इसका आशय इतना ही है कि जो जीव स्वभावसम्मुख हाकर अपने में आत्मकार्यकी प्रसिद्धि करता
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy