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________________ ३८२ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा बड़ापन माना है। यदि जीवको शरीरके प्रभादसे रहित माना जायगा तब यह बात भी नहीं बन सकेगी। और इस प्रकार आगमका विरोध होगा । ४. चौथी बात यह है कि इस प्रकार कर्मफलकी व्यवस्था भी समाप्त हो जायेगी । यदि विभावसे कर्मबन्ध और कर्मादयसे विभाव नहीं मानेंगे तो कर्मफलको व्यवस्था नहीं बन सकेगी। जिप विभावको हम कर्म कहते हैं बह तो निमित्त मात्र है तथा कर्मबन्ध केवल जराके उपादान कर्मपरमाणु ओंका कार्य है । इसी प्रकार जब कर्मोदय होता है वह भी निमित्त है और उस समय आत्मामें होनेवाला विभाष क्रेवल उपादानका ही कार्य है, तब यह कसे वहा जा सकता है कि अमुक-अमुक कमका अमुक फल है। यह तो परस्पर सम्बन्ध व्यवस्था ही सम्भव हो सकता है। ५. पांबनी बात यह है कि केवल उपस्थित रहनेवाले निमित्त कारण तथा पापार करनेवाले निमित्त कारण में परस्पर में विरोव मो है। निमित्तकारण यदि व्यापार करता है या प्रेरक है तब तो केवल उपस्थितिमूलक नहीं माना जा सकता। यदि निमित्त कारण उपस्थितिमूलक है तो उसको प्रेरक वा व्यापारमूलक नहीं माना जा म+ता है । जहा तक निमित्त कारणको प्रेरकताका सम्बन्ध है उसकी विस्तारसे चर्चा की जा चुकी है । और उसके समर्थन में अनेक सहयोन मार लि का बुरे है। ऐसी स्थितिम केवल उपस्थितिमूलक कारण माननेको कल्पनाको भी स्थान नहीं रह जाता। श्री पं० फूलचन्द्र जोने भी अपनी जैन तत्त्वमीमांसामें इसको स्वीकार किया है। इससे विदित होता है कि लोक धर्मादि द्रव्यों से विलक्षण प्रेरक निमित्त कारण भी होते हैं। सर्वार्थसिद्धिका वह उल्लेख इस प्रकार हैतुल्यबलत्वासयोगति स्थितिप्रतिबन्ध इति चेत् ? न, अप्रेरकन्वात् । -तत्वा० अ०५, सू. १७ द्रव्य वचन पौद्गलिक क्यों है. इसका समाधान करते हुए बतलाया गया है कि 'भाववचनरूप सामयंसे युक्त क्रियावान आत्माके द्वारा प्रेर्यमाण पुदगल द्रव्यवचनरू से परिशमन करते हैं, इसलिये द्रव्यवचन पौद्गलिक है।' इम उल्लेख में साष्टरूपरो प्रेरक निमित्तताको स्वीकार किया गया है। इससे भी प्रेरक निमित्तको सिद्ध होती है। उल्लेख इस प्रकार है तन्सामोपतेन क्रियात्रतात्मना प्रेयमाणाः पुद्गला वाफ्स्वेन विपरिणमन्त इनि व्यवागपि पौद्गलिकी। -त. सू. अ.", सू. १९ तत्त्रार्थवातिकमें भी यह विवेचन इसी प्रकार किया है। इसके लिये देखो अध्याय ५, सू०१७ और १९ । इसी प्रकार पंचास्तिकायकी (गा०८५८८ जयसेनीया टीका) संस्कृत टीका और बहद्दव्यसंग्रहमें ( मा० १७ व २२ सं० टी.) भी ऐसे उल्लेख मिलते हैं जो उक्त कथनको पुष्टि के लिये पर्याप्त है। उपर्युक्त विवंचनसे स्पष्ट है कि अन्तरंग कारण या उपादान कारण या द्रव्य को शक्ति कार्यरूप मा व्यक्तिरूप निमित्त कारणके व्यापारके बिना नहीं हो सकती। और इसीलिये आघायौंने निमित्त कारणको बलापान निमित्त स्वीकार किया है। ऐसी स्थितिम यह कहना कि कार्यकी उत्पत्ति केवल उपादान कारणसे ही होती हैं या निमित्त कारण बल उपस्थित ही रहता है, शास्त्रीय मान्यताके विपरीत है। इसी वर्चाको यदि दार्शनिकरूपमें लिखा जाय तो यों लिखना चाहिये
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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