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जयपुर ( सानिया ) तत्त्वचर्चा
थी उस निमित्त का अभाव होनेसे प्रति उसके अकर्मका परिपम जानसे अज्ञान भावके निमित्त का अभाव हो गन और उसका अभाव होनेसे नैमित्तिक अज्ञानपर्वायका भी अभाव हो गया और केवलज्ञान स्वभाव से प्रगट हो गया।' आगपसंगत है। क्योंकि पूर्व में अष्टमहनीके आधाग्मे जो कस' का लक्षण लिव आये है उसे दृष्टिपथमें रखकर ही आचार्य गद्धपिच्छने तत्वार्थसूत्रके 'मोहश्चयान इत्यादि मूत्रमें 'क्षय' शब्दका प्रयोग किया है. 'कार्योत्पादः क्षयो हेतोनियमात्' इसके अनुसार 'श्रय (ध्यय) अनन्तर पर्याय (उत्पाद) रूप ही है इस अर्थमें नहीं।
अपर पक्षने प्रतिशंका २ में अपने पक्ष के समर्थनके लिए निमित्तापाये नैमित्तकस्याप्यपायः' यह वचन उदधृत किया था मो यह वचन भी हमारे उक्त कथनकी ही पष्टि करता है, क्योंकि हमारा यही तो लिखना है कि अज्ञानादि निमित्त जो चार घातिया कर्म थे उनका अभाव होनसे नैमित्तिक अज्ञानादिका अभाव हो गया और चूंकि केवलज्ञान स्वभावपर्याय है, इसलिए वह पर (कर्म) निरपेक्ष होने के कारण स्वभावमे प्रगट हो गया। पता नहीं उक्त उल्लेख को अपर पक्षने अपने समर्थन में कैसे समझ लिया। अथवा पूर्व पर्यायके व्यय और उत्तरपर्यायके उत्साद इन दोनोंको सर्बया एक माननेसे जो गलती होती है वही यहाँ हुई है और यही कारण है कि अपर पक्षने 'निमित्तापाने' इत्यादि वचनको भो अपने पक्षका समर्थक जानकर प्रमाणरूपमें उद्धृत करने का उपक्रम किया है। प्रस्तु, अपर पक्ष उक्त विवेचन पर पूरा ध्यान देगा और प्रचारको दृष्टिले हमें उद्देश्य कर प्रतिशंका, ३ जो यह लिखा है कि
इस विषयमें हमारा नम्र निवेदन यह है कि उमास्वामी महान् विद्वान आचार्य हुए है। उन्होंने सागरको मागरमें बन्द कर दिया अर्थात् द्वादशांगको दशाध्याय सूत्र में गुम्फित कर दिया। हमको आशा नहीं थी कि ऐसे महान आचायाँके वचनोंपर भी आप आपत्ति बालकर खगठन करने का प्रयास करेंगे।' सो यह ऐसे आक्षेपात्मक वचनोंके प्रयोगसे घिरत होगा। वस्तुत: आवायके वचनोंका खण्डन हमारो ओरसे नहीं किया गया है। हमने तो उन महान आचार्यके उक्त बचन में जो रहस्य भरा है उसे हो उद्घाटित करने का प्रयत्न किया है । यदि मण्डनके नाम पर खण्डन किया जा रहा है तो अपर पक्षको ओरसे ही किया जा रहा है, क्योंकि वह पक्ष हो एकान्लसे व्यय और उत्पादमें सर्वथा अभेद मानकर चार घातिया कों को ध्वंसरूप अकर्मपर्यावको केवल. ज्ञानका जनक बतला रहा है जो तत्त्वार्थसूत्रके उक्त वचनका आशय नहीं है।
आचार्य अकलंकदेव और आचार्य विद्यानन्दित 'दोषावरणयोहानिः' इस आप्तमीमांसाकी कारिकाका व्याख्यान करते हुए क्रममे अष्टशतो और अष्टमहस्रो टोकामें 'प्रकृतमें श्वयका अर्थ जानावरणादि कोको अकर्मरूप उत्तर पर्याय नहीं लिया गया है, किन्तु ज्ञातावरणादिला पर्यायको हानि या व्याबत्ति ही लिया गया है' ऐसा स्पष्टीकरण करते हुए पृ० ५३ में लिखा है
मलादावृत्तिः क्षयः, सतोऽत्यन्तविनाशानुपपत्त: । ताहगात्मनोऽपि कर्मणो निवृत्ती परिशुद्धिः । मध्यमाभावी हिक्षयां हानिरिहाभिप्रेता। सा च यावृत्तिरेच मणेः कनकपाषाणाहा मलस्य किट्ठादेर्वा..... तेन मणेः कैवल्यमेव मलादेवकल्यम् । कमोऽपि चैकल्यमान्मकैवल्यमस्त्यच ततो नातिप्रसज्यते।
मलादिककी घ्यावृत्ति बय है, क्योंकि सत्का अत्यन्त विनाश नहीं बनता। उसी प्रकार पात्माको भो कर्मकी निवृत्ति होने पर परिशद्धि होती है। प्रकृतमें प्रथ्वसाभावका अर्थ क्षय या हानि अभिप्रेत है
और वह व्यावृत्तिरूप ही है। जैसे कि मणि में से मलको और कनकपाषाणमेंसे किट्टादिकी व्यावृत्ति होती है।... इसलिए मणिका अकेला होना ही मलादिकी विकलता ( रहितपना ) है। उसी प्रकार कर्मकी भी विकलता आत्माका कैवल्य हैं. ही, इसलिए अतिप्रसंग दोष नहीं आता।