________________
जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा बतलानेका प्रयत्न किया है। किन्तु अपर पक्षका यह कथन कल्पनामात्र है, क्योंकि एक वस्तुका उससे भिन्न वस्तुमें अत्यन्ताभाव है, इसलिए एक वस्तुके कार्यका कारण धर्म दूसरी वस्तुमें सद्भूत है यह मानना आगमसम्मत नहीं है। अतएव भेद विवश्नामें उपादानता नाम धर्मको कार्यसापेक्ष स्वीकार करना जहाँ सद्भूत व्यवहारका विषय है वहीं व्यवहारहेतुको कार्यसापेक्ष स्वीकार करके भी असद्भूत व्यवहारनयका विषय मानना ही उचित है। यही कारण है कि परमागमम 'एक कार्यके दो कर्ता नहीं होतं' यह स्वीकार किया गया है। इस विषयका विशेष खुलासा अनेक प्रदनों के उत्तरमें किया ही है।
अपर पक्षको एक वस्तु के कार्यका दूसरी वस्तुको निमित्तवार्ता कहना किस नयका विषय है और उस नयका लक्षण क्या है इस ओर ध्यान देना चाहिए। इसमें सह स्पष्ट हो जायगा कि एक वस्तके कार्यका दूसरी वस्तुको निमित्तका कहना मिट्टीके घड़ेको धोका घड़ा कहने के समान उपचरित वचन ही है। प्रत्येक वस्तु स्वभाबसे अपने ही कार्य का निमित्त (कारण) है। इसीको उपादानकारण कहते हैं। अन्य वस्तु अन्य वस्तुके कार्य को करे यह उसका स्वभाव नहीं है। अपर पक्ष अन्य वस्तु के कार्यका अन्य वस्तुको वास्तविक निमित्त मानकर उसे उपचरित मानने से हिचकिचा रहा है। यही कारण है कि प्रकृति में उसकी ओरसे जो तक उपस्थित किये गये है वे सब प्रवृतमें प्रयोजनीय नहीं है। अतएव उनकी उपेक्षाकर देना ही हम अपना प्रधान कर्तब्य मानते हैं।
अपर पक्षने यहाँ पर जो आपत्तियां उपस्थित की हैं, मात्र उनके भवसे हम उगादानगत कारणताका अन्य वस्तु में धारोपकर उसे व्यवहारहेतु नहीं कहते। किन्तु एक वस्तुका कारण धर्म दूसरी वस्तुमें नहीं पाया जाता, फिर भी उसमें निमित्त व्यवहार होता है, मात्र इसलिए हम उपादानगत कारणताका आरोप अन्य वस्तुमें करते है।
अपर पक्षने 'मुख्याभावे सप्ति प्रयोजने' इत्यादि वचनको उपस्थित कर पुन: उसे अपनी टोकाका विषय बनाया है । निवेदन यह है कि इसके आशयको समझने के लिए सर्व प्रथम उस पक्षको 'मुख्याभावे इस पदपर ध्यान देना चाहिए। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ मुस्म हेतु और मुख्य प्रयोजनके अभाव में व्यवहार हेतु और व्यवहार प्रयोजन विखलाना हो वहाँ उपचारका प्रवृत्ति होतो है । 'अनं प्राणा; सिंहो माणकमः' इन उदाहरणोंको भी इसी न्यायसे समझ लेना चाहिये । अन्न प्राणोंके मुख्य हेतु नहीं है । प्राणोंका
स्य हेतु तो उसका उपादान है। फिर भी अनको जो प्राण कहा गया है वह व्यवहार हेतुताको दिखलाने के लिए ही कहा गया है, अतः यहाँ उपाचारकी प्रवृत्ति हो जाती है। इसी प्रकार दूसरे उदाहरणको भी घटित कर लेना चाहिए । स्वयं अन्न अपनेसे भिन्न प्राणों का संरक्षण नहीं करते हैं, यह कार्य तो उपादानका है । प्राणोके संरक्षण आदिमें वह व्यवहार हेतु अवश्य है, इसलिए पहले तो अन्नमें प्राणोंको व्यवहार हेतुताका उपचार किया गया और इसके बाद उसमें प्राथापनेका उपचारकर अन्नको प्राण ही कहा गया । इसलिए अन्नको प्राण कहना यह उपचरितोपचार है। अपर पक्षने अपनो कल्पनाको हमारा कथन बतलाकर यहाँ जो कुछ भी लिखा है उसका उक्त कथनसे निराश हो जाता है, अतः यहाँ हमने विस्तारसे अपने अभिप्रायको स्पष्ट नहीं किया है।
एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के कार्य में सहयोग कर नहीं सकता, मात्र कालप्रत्यासत्तिवश सहयोगका व्यवहार अवश्य किया जाता है। अज्ञानी जीव पर वस्तुम इशनिष्ट या एकत्वबुद्धि करता है, इसे हो यदि अपर पक्ष अपनेस भिन्न वस्तुमें आकृष्ट होना कहना चाहता है तो इसमें आपत्ति नहीं। किन्तु इस आधारपर यदि