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________________ ६०४ जयपुर (खानिया) तरवचची परिणाम स्वयं आत्मा है और यह जीवमय क्रिया है तथा क्रियाको कर्म माना गया है, इसलिए मान्मा हन्यकर्मका मर्ता नहीं है ।।१२२॥ इस सम्बन्धमें उसकी टीका बिशेषरूपसे अबलोकनीय है। अपर पक्षने यहाँ अपने पक्ष के समर्थन में जितने वचन दिये है उन सबमें कहीं भी द्रव्यकमकी मध्यता परिलक्षित नहीं होती। आचार्य जयसेनशा जो 'शुभाशुभमनोवचनकायव्यापाररूपं' इत्यादि वचन अपर पचने उपस्थित किया है उसमें भी प्रधानला मिथ्यात्वादि भावोंको ही दी गई है। इसलिये प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि वस्तुत: मिथ्यात्वादि भाव आत्माके सम्बकत्व आदिके प्रतिबन्धक है। ये मिथ्यात्वादि भाव द्रव्यकर्म के संयोगमें उपलब्ध होते है, इसलिये असदभूत व्यवहारमयसे द्रश्यकर्मका उदय भी इनका प्रतिबन्धक कहा जाता है । द्रव्यकर्म हेतुः तस्य, इम्यकर्मसंयुक्तत्वोपलभ्यमानत्वात् (प्रवचनसार गा० १२१ टीका ) यही भाव हमने अपने पिछले उत्तरमे प्रगट किया है और पूरे प्रकरणपर दृष्टिगात करनेसे यही उचित प्रतीत होता है । इसमें निश्चयपक्ष और व्यवहारपक्ष दोनों का अन्तर्भाव हो जानेसे एकान्सका परिहार भी होजाता है। पं० श्री जमवन्द्र जो महान् विद्वान तथा अनेक ग्रन्थोंके आगमानुकूल अर्थ करनेवाले थे। उन्होंने इन तीन गाथाओंकी जिन शब्दों में व्याख्या की है तथा इनको टीकाका अर्थ स्पष्ट किया है, कम से कम अपर पक्ष उन्हीं शब्दों तक अपनेको सीमित रखता तब तो उनके नामस्मरणकी कुछ सार्यकता थी, अन्यथा उनका नाम ले कर अपने एकान्त पक्षके समर्थन में कुछ सार नहीं । __अपर पक्षका कहना है कि 'निमित्तोंका सम्यक जान करानेके लिए ये शब्द किसो आगमके तो है नहीं, किन्तु आपकी निजी नवीन कल्पना है जो कि मान्य नहीं है।' सो मालूम पड़ता है कि अपर पक्षा बन्ध मोक्षको तो जानना चाहता है पर उनके निमित्तोंको नहीं जानना चाहता। तभी तो उक्त शब्दोंको जस पक्षने टीका योग्य माना है। वास्तवमें देखा जाय तो मागममें छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पांच अस्तिकाय आदिका जितना भी उपदेश पाया जाता है वह सब सम्यक ज्ञान कराने के लिए ही जपलब्ध होता है । अस्तु, अपर पक्षने अपराध सहेतुक है या निहेतुक इसकी चरचा करते हुए यह तात्पर्य फलित किया है कि 'इसलिए अपराधके कारणरूप पर द्रव्यका प्रथम त्याग होना चाहिए उसके पश्चात् ही अपराधका दूर होना सम्भव है । आदि ।' समाधान यह है कि बाह्य वस्तुका त्याग और बाह्य वस्तुविषयक रागका त्याग ये दो वस्तु नहीं हैं, दो कथन हैं। अतएव यथार्थमें जहाँ बाह्य वस्तुविषयक रागसे निवृत्ति है वहीं बाह्य वस्तुके त्यागका व्यवहार यथार्थ माना जाता है, अन्यथा वह कोरा त्याग है । बाह्म वस्तुविषयक अपराध बना रहे और बाह्य वस्तुका त्याग उसके पूर्व हो जाय ऐसी मान्यताका समर्थन करना बपर पक्षको ही शोभा देता है। दिगम्बर परम्परा और इतर परम्पराको प्ररूपणामें अन्तर यह है कि जहाँ बाह्य वस्तु वखादिविषयक राग नहीं है वहाँ बाह्य वस्तुविषयक ग्रहणका न तो विकल्प है और न प्रवृत्ति ही है यह तो दिगम्बर परम्पराकी मान्यता है और इतर परम्पराको मान्यता यह है कि बाह्य वस्तु वस्त्रादिविषयक ग्रहणका विकल्प भी बना रहे और वैसी प्रवृत्ति भी हो तो भो वस्त्रादिविषयक राग नहीं होता। स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा विवक्षित निश्चयकी प्राप्तिके साथ सद सुकूल व्यवहारको ही समीचीन मानती है, जब कि इतर परम्परा निश्चय को प्राप्तिके पूर्व ही अकेले व्यवहारको यथार्थ मानती है। यही कारण है कि 'कोटि जनम तप तपै ज्ञान बिन कर्म झरेजे।' इत्यादि रूप समीचीन कथन दिगम्बर परम्परा तक ही सीमित हैं। इस विषय में दिगम्बर परम्पराका हार्द क्या है इसे भगवान् कुन्दकुन्दने समयसार गाया २६५ में स्पष्ट किया है। वहाँ छ लिखते है
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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