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________________ शंका ९ ओर उसका समाधान वधु पहुच जं पुण अज्झनसाणं तु होइ जीवाणं । ण व वरदो दु बंधी बंधी थि || २६५॥ ६०५ जीवोंके जो अध्यवसान होता है वह वस्तुको अवलम्बन कर होता है । तथावि वस्तुसे बन्ध नहीं होता, अध्यवसानसे बन्ध होता है ||२६|| आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथाकी उत्थानिकामे ये शब्द लिखे हैं- न च वाद्यवस्तु द्वितीयोऽपि वन्यहेतुरिति शंक्यम् । इसका आशय स्पष्ट करते हुए पं० श्री जयचन्द्र जी आगे कहते हैं कि जो बाह्य वस्तु है यह बन्धका कारण है कि नहीं ? कोई समझेगा कि जैसे अध्य वसान बन्धका कारण है वैसे अन्य वाह्य वस्तु भी बन्धका कारण है सो ऐसा नहीं है, एक अध्यवसान ही बन्धका कारण है- इसको आत्मख्याति टोकानें लिखा है- अध्यवसानमेव बन्धहेतुः न वाद्यवस्तु, तस्य वन्पतोरत्यवसानस्य हेतुमेव परितार्थत्वात् । त किमर्थो ह्यवस्तुप्रतिषेधः ? अध्यवसानप्रतिषेधार्थम् । अध्यावसान ही बया कारण है, बाह्य वस्तु नहीं, क्योंकि कन्यका कारण जो अध्यवसान है उसके हेतुरूपसे ही उसकी चरितार्थता है । को बाह्य वस्तुका प्रतिषेध किसलिए किया जाता है ? समाधान- अध्यवसान के प्रतिषेधके लिए । बाह्य वस्तु बन्ध क्यों नहीं होता इसका समाधान आरायं जयसेनने इन शब्दोंयें किया है— अन्वयव्यतिरेकाभ्यां व्यभिचारात् । तथा हि-- बाह्यवस्तुनि सति नियमेन बन्धो भवति इति अन्यो नास्ति तदभावे बन्धो भवतीति व्यतिरेकोऽपि नास्ति । बाह्य वस्तु के साथ या अन्वयव्यतिरेक नहीं बनता, इसलिए बाह्य वस्तु बन्धका कारण नहीं है। यथा---बाह्य यस्तुके होनेपर नियमसे बन्ध होता है इसलिए अन्यय नहीं बनता तथा वाह्य वस्तु के अभाव में बन्ध होता है इसलिए व्यतिरेक भी नहीं बनता । इससे स्पष्ट है कि जिसे अपर पक्ष बाह्य वस्तुका त्याग कहता है वह तभी पदार्थ कहलाता है जब अध्यवसानका त्याग हो । दिगम्बर परम्परा ऐसे हो त्यागको यथार्थ कहती है । आगम में इच्छाको प्रमुख रूप से परिग्रह कहनेका कारण भी यही है। आचार्योंका आशय यह है कि जहाँ बाह्य वस्तुविषयक इच्छा नहीं है वहाँ बाह्य वस्तुका ग्रहण धन ही नहीं सकता। उसका पाए तो इच्छा समागमें समाहित है हो । यही दिगम्बर परम्परा हूँ जो नित्यशः वन्दनीय है । इस प्रसंग अपरपक्षने कलश नं० २२० आदिको चरणा की है। परदन हो और राग-द्वेष न हो तथा परद्रव्य न हो और रामदेबको उत्पत्ति हो यह सम्भव है, इसलिए परद्रव्प स्वयं राग-द्वेषका उत्पादक नहीं है। इस तथ्यको स्पष्ट करनेके लिए कलश २२० लिखा गया है । परद्रव्यमें निमित्त व्यवहार कब होता है जब उसमें यह
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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