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जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा रागी, वेषो और मोही होता है यह तथ्य कलश २२१ द्वारा स्पष्ट किया गया है। परके लक्ष्यसे राग, द्वेष, मोह होता है. इसलिए जिनागममें परके त्यागका भी उपदेश है पर उस द्वारा परमें इष्टानिष्ट या निज ब मुक्त होनका हो त्याग कराया गया है यह आशय समयसार गाया २८३.२८५ का है। अतः इन सबकी संगति है। पूर्वापर विरोध तब आता है जब परको रागादिकी उत्पत्ति में व्यवहार हेतु न स्वीकार कर उसे यथार्थ हेतु स्वीकार किया जाता है। अपर पक्षको परको यथार्थ हेतु माननकी अपनी मान्यताका ही त्याग करना है। इसके त्याग होते ही जो हम लिख रहे है उसकी यथार्थता अपर पक्षको सूतरां भासित होने लगेगी।
इससे यह तथ्य सुतरा फलित हो जाता है कि परद्रव्य अपनेसे भिन्न दूसरे व्यके कार्यका स्वयं निमित्त नहीं है, किन्तु उससे सम्पर्क कर जब अन्य द्रव्य पापार करता है तब उसमें निमित्त व्यवहार होता है।
हमने लिखा था कि 'दुरातिदूर भव्य भी मुनिचर्या (व्यवहारचारित्र) के द्वारा अहमिन्द्र पद पा सकता है 1' इस पर टीका करते हुए अपर पक्षने जयधवला पु० २ पृ० ३८६ का उल्लेख उपस्थित कर उक्त अभिप्रायका खण्डन किवा है जयघवलाका वह वचन इस प्रकार है
केसि पि अणादिलो अपज्जवसिदो, अभध्वेसु अभच्चसमाणभब्वेसु च णिच्चणिगोदभावमुपमएसु अषट्ठाणं मोतूण भुजगारमापदराणमभावादी।
___ किन्हीं जीवोंके अवस्थित विभत्रितस्थान अनादि-अनन्त होता है, क्योंकि जो नित्य निगोदभावको प्राप्त हुए अभव्य और अभव्योंके समान भष्य है उनके अवस्थित स्थानके सिवाय भुजगार और अल्पतरस्थान नहीं पाये जाते हैं।
इसलिए उक्त उल्लेखसे इस तथ्यका समर्थन नहीं होता कि 'जो दूरातिदूर भप है वे निगोदमें ही रहते हैं । वे मुनिलिंग अथवा व्यवहारचारित्र धारण कर अहमिन्द्र नहीं हो सकते ।' मेरी समससे जयधवलामें उक्त उल्लेखका अर्थ करने में गलती हुई है, अतः उसमें सुधार अपेक्षित है । दृष्टान्त इष्टार्थका शान कराता है। पर वह सर्वथा लागू नहीं होता। यह विषय परामर्श विशेषकी अपेक्षा रखता है, इसलिए उस पर परामर्दा होना चाहिए। इसे विवादका विषय बनामा उचित नहीं है।
अपर पक्षने पिछले पत्रको 'व्यवहारचारित्र प्रत्येक दशामें सफल है' यह लिखा था। यहाँ उक्त कथनके आशयको स्पष्ट किया है। हमें व्यवहारचारित्रको परम्परा मोक्षका कारण कहने में या उसे निश्चयचारित्रका साधक कहने में आपत्ति नहीं है। हमारा कहना तो इतना ही है कि अपर पक्ष जो इन शब्दोंका अर्थ करता है वह ठीक नहीं है । व्यवहारके स्वरूप और प्रयोजनको समझा कर उन्हें इन शब्दोंका अर्थ करना चाहिए।
यदि हमसे कोई पूछ कि जो मिथ्पादृष्टिसे सम्यग्दृष्टि बनता है उसके मिथ्यादृष्टि अवस्थामैं इसके पूर्व कितनो विशेषता हो जाती है तो हम अपर पक्षके कथनानुसार यह तो कहेंगे ही कि यह सच्चे देव-गुरु-शास्त्रमें गुरूपदेश आदिको ग्रहण कर श्रद्धावान् हो जाता है, आदि । किन्तु इसके सिवाय यह भी कहेंगे
१. वह मोश्चमार्ग में द्रव्यलिंगकी महिमा न स्वीकार कर भापलिंगकी महिमा स्वीकार करने लगता है । साथ ही उसके विशुद्धि आदि लब्धियोंका सन्निधान नियमसे होता है।
२. पंच परमेष्टीके सिवाम वह अन्य सबको पूजा-भक्तिसे विरत हो जाता है। ३. षद्रव्यादिके प्रज्ञानपूर्वक निश्चय मोक्षमार्गके उपदेशको वह श्रद्धापूर्वक स्वीकार करता है ।