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शंका ९ और उसका समाधान
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४ इन्द्रिय विषयों में तीव्र आसक्ति अभावरूप उसके सम्यग्दृष्टि अनुरूप बाह्य भूमिका नियमसे बन जाती है।
५. उसके द्रव्यरूपये २५ दोषों और छह नायक स्थान होकर सम्यक्त्वके आठ अंगोंके प्रति आदरभाव प्रकट हो जाता है । आादि ।
किन्तु वह सब होने पर भी उसे सम्यक्त्व प्राप्त हो हो जायगा ऐसा नहीं है। उसको जब भी प्राप्ति होगी स्वभावयन्युत हो कर सत्यरूप अनुभूतिके प्रकाशमें ही होगी। इसलिए प्रत्येक भव्य जीवको मात्र मन्त्ररूपायरूप बाह्य प्रवृत्ति में मग्न न होकर स्वभावसन्मुख होने का सवत अभ्यास करते रहना चाहिए ।
अपर पक्ष हमारे कथमके आशयको स्वीकार कर ले तो फिर हमारा उस पासे कोई विरोध नहीं है। मोमार्थके निरूपण में सांसारिक लालनको दृष्टि रखता है है, क्योंकि स्वर्गादिक्की प्राप्ति मोक्षमार्गको प्राप्ति नहीं है और न यह भी नियम है कि जो स्वर्गादि यति अधिकारी होते हैं उन्हें मोक्षमार्गकी प्राप्ति नियमसे होती है, अभ्यको नहीं होती। इसलिए यथार्थको जानकर स्वभाव प्राप्तिमें उद्यमशील होना यही प्रत्येक व्यका कर्तव्य है।
अगर पदाने सर्वार्थसिद्धि ७, ११ की चरचा करते हुए जिन तीन बातोंका निर्देश किया है उनका उत्तर है
१. इस जीवको परका त्याग करना है इसका अर्थ-परका सम्पर्क त्यागना है। स्पष्ट है कि पर दुखदायक नहीं, परका सम्पर्क दुःखदायक है । परका सम्पर्क करे या न करे इसमें आत्मा स्वाधीन है ।
२. कर्मोदय उपयुक्त होना या न होना इसमें आत्मा स्वतन्त्र है।
२. परमे यया त्याग करना इसका अर्थ घरविषयक राम-मूच्या त्याग करता है। यहीं घरका माग व्यवहार नहलाता है। इसके शिवाय घरका ध्यान बन्न वस्तु नहीं।
आचार्य अमृतचन्द्र गा० २८३ - २८५ की टीकामें जो कुछ का है उसका स्पष्टीकरण पहले इसो उत्तर में कर आये हैं । तथा यहाँ भी अपर पक्षके तीन विकल्पों को ध्यान में रखकर क्रमश: किया है ।
भागाकाराला बुद्धिपूर्वक घर में नहीं ठहरता यह तो ठीक है, पर घर में ठहर नहीं सकता है यह ठीक नहीं है। शून्यागारमै मूर्च्छा हो जाय तो वह भी पर ही है। पर भावनिक होती नहीं चरना करना व्यर्थ है ।
यकी
'गृहे प' का अर्थ हमने घर में बैठा किया है। इसे अपर पक्ष आगमानुकूल नहीं मानता । घरने रहना और बेडमा इसमें विशेष क्या फरक हो गया इसे कही पक्ष जाने हमें यह इष्ट है कि भावन लिए आत्मा शिवाय अन्य सब पर पर हैं। इसलिए वह अपने आत्मायें ही ठहरता है, स्थित होता है, बैठता है वह शून्यागार ठहर सकता है यह कहना मी व्यवहार ही है ।
निश्चयवहारका अविनाभाव है। इसलिए हमने निश्चयचारित्र के साथ व्यवहारचारित्र के होने की यात 'बुविहं पि सोक्सहे साने पाऊल' (प्रध्यसंग्रह गा० ४७ ) इस सिद्धान्तको ध्यान में रखकर कही थी। अपर पक्षका कहना है कि 'यदि यह माना जायगा तो सावाँ गुणस्थान होनेपर वस्वत्यान केशलोंच, महाव्रतधारण आदि व्यवहारचारिकी क्रिया होगी।' समाधान यह है कि यह क्रिया तो भावमुनि होने के पूर्व