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जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा आचार्य कुन्दकुन्द समयसार निर्जराधिकारको उपमोगमिंदिरहि' गाथा द्वारा यह भाव व्यक्त कर रहे हैं कि सम्पनि जीवको कर्मोदयनिमित्तक भोग अवश्य प्राप्त होते हैं पर वह उनमें विरक्त ही रहता है, इसलिए वे निर्जराके हेतु हैं । यहाँ निर्जराकी हेतुताका बल विरक्त भावों पर है, भोगों पर नहीं। अपर पक्ष सम्भवतः यह भूल जाना है कि भोगोंमें आसक्ति अशुभोपयोग है, शुभोपयोग नहीं, अन्यथा वह पक्ष उक्त वचमको इस रूपमें प्रकृतमें उदाहरणरूपमें उपस्थित न करता।
अपर पक्षने यहाँ पर शुद्धोपयोग ११ में गुणस्थानसे होता है यह लिस्यकर कर्मबन्धको व्यवस्थाका निर्देश किया है और पहले वह एक अपेक्षासे ६ गुणस्थान तक तथा दूसरो अपेक्षासे १२वें गुणस्थान तक शुभोपयोग लिख आया है । यहाँ उस पक्षने 'यदि उपनामश्रेणि या क्षयवाथेणिके आदि तीन गुणस्थानों में भी शवोपयोग माना जाये' ग्रह लिख कर अपने पिछले कथनके विरुद्ध निविवादरूपसे यह भी घोषित कर दिया है कि वे गुणस्थानमें शुभोपयोग होता है, जब कि बह एक अपेक्षासे वे गुणस्थानमें भी शुसो. पयोग स्वीकार कर आया है। इस प्रकार चौथे गुणस्थानसे १२ वें गुणस्थान तक कोन उपयोग होता है इस सम्बन्ध में उस पक्षको ये परस्पर विरुद्ध मान्यताएं है। और आश्चर्य इस बातका है कि इन परस्पर विरुद्ध मान्यताआके आधार पर वह पक्ष कर्मशास्त्र में प्रयुक्त हुए 'संक्लेश' और विमृद्धि' शब्दोंके ऊपर ध्यान न देकर कर्मबन्धकी व्यवस्था करना चाहता है। अन्यथा यह पक्ष हमारे 'शुभोपयोग होने पर कर्मबन्धकी स्थिति और अनुमागमे वृद्धि हो जाता है और शुक्रवार को होग पर स्थिति अनुभागमें हानि हो जाती है।' इस कयन पर अणुमात्र भी दीका न करता, क्योंकि सामान्यतः यह कथन आठों कों में प्रधानभूत तथा जीवके अनुजीवी गुणोंका घात करने में निमित्त होनेवाले चार घातिकर्मीको लक्ष्यमें रख कर किया गया है,
पर अविकल घटित भी होता है। पुण्य-पाप प्रकृति योमसे पाप प्रकृतियोंका बन्ध शद्धोपयोगकै कालमें होता ही नहीं। आयुकर्मके लिए नियम ही अलग है। इसलिए अघाति कर्मोंकी दृष्टिसे उक्त वचन नहों लिखा गया है।
___अपर पचने शुभोपयोगका अर्थ विशुद्ध परिणाम किया है, वह ठोक नहीं, क्योंकि असाताके बन्धके योग्य परिणामका नाम संक्लेश है और साताके बन्धक योग्य परिणामका नाम विशुद्धि है । यथा--
को संकिलेसो णाम ? असादबंधजोगपरिणामो संकिलेसी णाम । का चिसोही? सादबंधजोगापरिणामी। -ध० पु. ६ पृ. १८५
शुभोपयोगमें ये संक्लेश और विशुद्धिरूप दोनों प्रकारके परिणाम होते हैं, इसलिए शुभोपयोगका अर्थ न तो विशुद्ध परिणाम करना उचित है और न ही शुभोपयोगके आधार पर सब कर्मोंके स्थितिबन्ध मोर अनुभागबन्धको व्यवस्था करना हो उचित है। कमशास्त्रमें संक्लेश और विशुद्धि इन दोनों संज्ञाओंका स्वतन्त्ररूपसे प्रयोग हुआ है । उसे ध्यानमे रखकर यहाँ हमें विवेचन करना इष्ट नहीं था। यहाँ तो हमें केवल यह बतलाना इष्ट था कि जब यह जीव स्व-परप्रत्यय कषायसे उपयुक्त होता है तब घातिकर्मोंका स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कैसा होता है और जब यह जीव स्व-परप्रत्यय कषायसे उपयुक्त नहीं होता है तब पातिकोका स्थितिबन्ध अनुभागबन्ध कैसा होता है। इसी दृष्टिको ध्यान में रखकर हमने उक्त प्राक्य लिला था। किन्तु अपर पक्षने शुभोपयोगका अर्थ केवल विशुद्ध परिणाम करके उस आधार पर तीन आयुओं को छोड़कर सब कर्मोक स्थिति और अनुभागबन्धकी व्यवस्था करने की चेष्टा को यह उचित नहीं है ।