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शंका १६ और उसका समाधान
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अपर पक्षके इस व्यवस्थासम्बन्धी वचनको पढ़ कर यह भी मालूम पड़ता है कि वह शुभोपयोग अर्थात् विशुद्ध परिणामों प्रशस्त प्रकृतियोंके स्थितिबन्ध में वृद्धि मानता है। हमें आश्चर्य होता है कि उस पक्षी बोरसे गोम्मटसार मा० १३४ भी उद्धृत की गई धौर फिर भी यह तो हुई। यदि यह पक्ष विशुद्धि परिणामका अर्थ शुभोपयोग न करता तो सम्भवतः यह गलती न होती। वस्तुतः वह समय कथन हो भ्रमपूर्ण है, क्योंकि स्थितिबन्धके लिए अलग नियम है और अनुभागबन्धके लिए अलग नियम है। उनको पृथ करने पर ही समय कमोंको स्थिति अनुभवसम्बन्धी व्यवस्थाका ज्ञान कराया जा
पृथक्-पृथक्
सकता है ।
इस प्रकार अणुभादि तीनों उपयोगोंका क्या तात्पर्य है इसका विचार किया।
१७. समयसार गाथा २७२ का आशय
अपर पहने समयसार गाया २७१ को ध्यान में रख कर लिखा है कि 'वीतराग निविकल्प समाधिमें स्थित जीवोंके लिए व्यवहारनयका निषेध है, किन्तु प्राथमिक शिष्यके लिए वह प्रयोजनवान् है ।' समाधान यह है कि जितना भी अध्यवसानभाव है वह पराचित होनेसे बचका हेतु है अवश्य निश्चयनयके द्वारा उसका प्रतिषेध करते हुए आचार्यने व्यवहारनयनात्र प्रतिषिद्ध है ऐसा कहा है। इसलिए व्यवहारमयको प्रतिषेध्य हो जानना चाहिए, क्योंकि स्थापित निश्चयन पर झाड़ हुए शानियोंके ही कमस छूटनापन सुघटित होता है ।
जो सम्पदृष्टि जीव है वह सविक अवस्थामें आने पर भी व्यवहारनपको तो आप योग्य मानता ही नहीं, क्योंकि उसको उसमें हेवबुद्धि बनी रहती है यह यह अच्छी तरह से जानता है कि स्वरूपस्थिति हुए बिना मेरा भवबन्धनसे छुटकारा होना सम्भव नहीं है। इसलिए उसके विकल्प अवस्थामें पंच परमेष्ठीको भक्ति नादि, मोक्षमार्ग प्ररूपक शास्त्रोंका सुनना तथा अणुव्रत महाव्रत का पालना आदि रूप परिणाम होते अवश्य है, परन्तु इनके होते हुए भी उसके चित्तमें एकमात्र ज्ञायक आत्माका आश्रमकर तत्स्वरूप परिणमनको उपादेयता हो बनी रहती है। इसलिए वह (मम्यम्दृष्टि जीव ) व्यवहारको करने योग्य मानता होगा यह तो प्रश्न ही नहीं उठता हो जो प्राथमिक मिध्यादृद्धि ओत्र व्यवहारको आश्रय करनेयोग्य जान कर उसके आलम्बन द्वारा निरन्तर अज्ञानादिरूप परिणयता रहता है उसके लिए यह उपदेश है । माचार्य जयसेमाने समयसार गाथा २७२ की टीका में जो 'यद्यपि प्राथमिकापेक्षया' इत्यादि वचन लिखा है यह समयसार गाथा के अभिप्रायको ध्यान में रख कर ही लिखा है व्यवहारमय निश्चयका करानेवाला या सूचक है, क्योंकि यह कार्य तो निर्विकल्प जायक कारण कि 'मे शायरुस्वरूप
साधक है इसका आदाय हो यह है कि व्यवहारनय निश्चयका ज्ञान सविकल्प अवस्था निविस्व अवस्थामे पहुंचाना व्यवहारनयका कार्य नहीं आत्माका कर तत्स्वरूप परिणमन द्वारा ही सम्पादित हो सकता है। हूँ, परम आनन्दका विधान हूँ ।' इत्यादि विकल्प ही जब तक इस जीवके बना रहता है तब तक वह निर्विकल्प समाधिका अधिकारी नहीं हो पाता ऐसी अवस्था बाह्य अणुव्रतादिरूप क्रिया व्यवहार उसका साधक होगा इसे कौन विवेक स्वीकार कर सकता है।
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आचार्य अमृतचन्द्र पंचास्तिकाय अन्तमें जो 'व्यवहारमयेन विसान्य-साधनमा हत्यादिवचन लिखा है वह भी समयसार गाया ८ के आशयको ही सूचित करता है जो अनादि मिध्यादृष्टि प्राथमिक शिष्य या जिसका बेदककाल व्यतीत हो गया है ऐसा सादि मियादृष्टि प्राथमिक शिष्य यह नहीं जानता कि
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