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________________ क्षितीय दौर शंका ११ प्रश्न मह थापरिणमन के स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय दो भेद है, उनमें वास्तविक अन्तर क्या है ? प्रतिशंका २ आपने इस प्रश्नका जो उत्तर दिया है उसमें आपने लिखा है कि 'सभी द्रव्योंकी स्वभावपर्याय स्वप्रत्यय होती है तथा जीव और पुदगलकी विभावपर्याय स्परप्रत्यय होती है। इस कथनके विषहमारा केबल का है। कहायाकयपि यस्तु स्प्रत्यय पर्याय स्वभावरूप ही होती है, परन्तु वस्तुको सभी स्वभावपर्याय स्वप्रत्यय नहीं होती है। जैश आपने संपूर्ण द्रव्योंकी अगुरुलघुगुणद्वारा प्रतिसमय प्रवर्तमान षट्गुण हानि-वृद्धिरूप पर्यायांको स्वप्रत्यय पर्याय स्वीकृत किया है। यह तो ठीक है, परन्तु आकाश द्रव्यको परपदार्थावगाहकत्व गुणको अवगाहमान परपदार्थोके निमित्तसे होनेवाली पर्याय, धर्मद्रत्यकी गतिपरिणत जीवों तथा पुद्गलोंके निमित्तसे होनेवाली गतिहेतुकत्व गुणको पर्यायें, अधर्म द्रव्यको स्थितिपरिणत जीवों और पुद्गलोंके निमित्तसे होनेवाली स्थितिहेतु कल्व गुण की पर्यायें, कालद्रव्यको वृत्तिविशिष्ट संपूर्ण द्रव्यों के निमित्तसे होनेवाली वर्तनागुणकी पर्यायें, मुक्त जीवकी शेयभूत पर पदार्थोके निमिससे होनेवालो ज्ञानगुणको उपयोगाकार परिणमनरूप पर्याय, कर्म तथा नोकमसे बद्ध संसारी जीवोंको कर्मक्षय तथा कर्मोपशमके होनेपर उत्पन्न होनेयाली क्षायिक और औपशयिक पर्याय तथा ज्ञेयतापन्न अणुरूप तथा स्कन्धरूप पुद्गल द्रव्योंको ज्ञात्तता आदि विविध पर्याय-इस प्रकारको सभी पर्याय उस उस वस्तुको स्वाभाविक पर्याय होते हुए भी स्वपरप्रत्यय ही हुआ करती है. स्वप्रत्यय नहीं । इसी प्रकार जीवोंको नर-मारकादि पर्याव तथा पदगलांकी कर्म और जीवशरीरादिरूप पर्याय विभाव रूप होने के कारण यद्यपि स्व-परप्रत्यय मानी गई है तथापि यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिये कि ऊपरके विवेचनके अनुमार प्रत्येक वस्तुकी बहुतसी स्वाभाविक पायें भी स्वपर.प्रत्यय पर्यायों में अन्तर्भूत होती है । आगममें भी वस्तके स्वाभाविक स्वपरप्रत्यय परिणमनोंको स्वोकार किया गया है । यथा-- ज्ञेयपदार्थाः प्रतिक्षणं भङ्गत्रयेण परिणमन्ति प्रथा ज्ञानमपि परिच्छित्यपेक्षया भङ्गत्रयेण परिणमति । -प्रवचनसार गाथा १७ जयसेनीया टीका अर्थ-ज्ञेय पदार्थ प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और प्रोब्धमय भङ्गयसे परिणत होते रहते हैं उसीके अनुसार ज्ञान भो भङ्गत्रयरूपसे परिणत होता रहता है। इसी प्रकारके प्रमाण जयधवलमै भी पाये जाते हैं । आगममें जहाँ आकाश, धर्म, अधर्म कालद्रव्योंक स्वरूपका वर्णन किया गया है वहीं यथायोग्य पर द्रव्यों के प्रति इनके उपकारको भी चर्चा की गई है। जीवोंकी परपधार्थज्ञातत्व और परसदार्थशिस्त्र आदि
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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