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जयपुर ( खानिया) तस्वचर्चा
योग्यताओं एवं राग, द्वेष, मोह प्रादि परिणतियोंकी चर्चाओंसे भी आगम ग्रन्थ भरे पड़े है तथा विविध प्रकारके भौतिक विकास के रूप में पुद्गल परिणतियां तो प्रत्यक्ष ही हमें दिखाई दे रही हैं और जिनका उपयोग लोकमें हो रहा है तथा हम और आप सभी करते चले आ रहे हैं ।
___ इस तरह विश्व के संपूर्ण पदार्थोंमें यथायोग्य होनेवाली पर्यायोंको उपर्युक्त प्रकार से स्वप्रत्यय, स्वाभास्थिरप्रत्यय जोर वैमाधिका स्परप्रत्यय परिणमनों में ही अन्तर्भूत करना चाहिये ।
आपने अपने उत्तरके अन्त में स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय परिणमनों में अन्तर दिखलाने के लिये जो यह बात लिखी है कि जिस प्रकार स्वपरप्रत्यय पर्यायोंको उत्पत्ति में कालादि द्रव्योंको विवक्षित पर्याय यथायोग्य आश्रय निमित्त होतो है उसी प्रकार स्वप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिमें कालादि द्रव्योंको विवक्षित पर्याय यथायोग्य आश्रय निमित्त होती है, परन्तु उनको दोनों स्थानोंपर कथनकी अविवक्षा होने से यहां उनकी परिगणना नहीं की गई है यही स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय इन दोनोंमें भेद है।'
आपको यह बात विचारणीय है, क्यों क स्वप्रत्यय और स्वपरपत्मय दोनों परिणमनों में केवल आश्रयनिमित्तोंके कथन करनेकी अधिवक्षा और विरक्षा मात्रका हो भेद नहीं है। आपने भी अपने उत्तर में स्त्र भाव पर्याय और विमाव पर्यायके कारणोंका निर्देवा करते हुए प्रवचनसार गाथा ९३ की टीकाका उद्धरण देकर यह स्वीकार किया है कि स्वपरप्रत्यय परिणमान में स्वके साथ पर भी कारण होता है 1 टीकाका व उपके हिन्दी अर्थका उल्लेख आपके सत्तरपत्रमें है। आपने अपने उत्तरके प्रारम्भ में तो स्पष्ट रूपसे स्वपरप्रत्यय परिणमनमें . का और करणरूप निमित्तोंको स्वीकार किया है जो कर्ता और करणरूप निमित्त स्वप्रत्यय परिणमन में आपको भी मान्य नहीं है।
इस तरह स्थप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय परिणमनमें यदि कोई वास्तविक अन्तर है तो वह अन्तर यही है कि स्वप्रत्ययपरिणमनमें कर्ता-करणरूप निमित्त कारणोंको नहीं स्वीकार किया गया है जब कि स्वपरप्रत्यय परिणमनके होने में इनकी अनिवार्य आवश्यकला रहा करती है
विशेष विचारणा यह होती है कि जब अध्यात्मबादके अनुसार कार्य-कारणभावकी विवंचना करते हुए दो प्रकारको ( स्वप्रत्यत्र और स्वपरप्रत्यय) पर्यायोंका कथन किया गया है ऐसी दशा में स्वप्रत्यय पर्याय उपादानकी परिणति होनेसे स्वाधित है, इसलिये उसे स्वप्रत्यय नाम देना समुचित है, परन्तु स्वपर प्रत्यय पर्यायको उपादानको परिणति होने के कारण केवल उपादानजन्य माना जाय तो उसे स्व-परप्रत्यय कहना असंगत ही है। वास्तविक दृष्टिसे विचार किया जाय तो उपादानके साथ कारण-रूप ऐसा कौनसा पदार्थ है जो उपादानको समतलामें बैठकर उस पर्यायका निर्माण करे और तब उसके आधारपर उसका स्वप्रत्यय पर्यायसे मास्तविक भेद स्थापित हो सके।
जब कि आपकी मान्यताके अनुसार जो आप्रय कारण कालादि पर पदार्थ है और जिन्हें आपने स्वप्रत्यय तथा स्वपरप्रत्यय दोनों तरहको पर्यायों में समानरूपसे कारण माना है तो उन पर्यायोंको उत्पत्तिमें केवल सनकी विवक्षा और अविषक्षा मासे वास्तविक अन्तर कैसे लाया जा सकता है।
यहाँ पर यह भी एक विचारणीय बात है कि आगमके निर्माता आयायं उक्त दोनों पर्यायोंका कारण भेदमे पृथक-पृथक विवंचन करते हुए केवल कालादि आश्रय निमित्तांकी विवक्षा और अविवशामात्रसे पार्थक्य दिखलायें ऐसा मानना उनके गहरे ज्ञानके प्रति हमारी मतनुभूतिका द्योतक है।