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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा
अब प्रतिशंका २ में जो अर्थ उक्त गाथाका किया गया है उसे पढ़िये -
अर्थ-बन्ध और मोक्ष में जीव निश्चयनयसे कारण होता है अर्थात् उपादान कारण होता है और जीवसे अन्य कर्म· नोकर्मरूप पदार्थ व्यवहारनयसे कारण होते हैं अर्थात् निमित्तकारण होते हैं ।
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पाठक देखेंगे कि 'अन्य' शब्दका अर्थ हमने निमित्त किया था उसपर आपत्ति उठाई थी, पर प्रति शंका २ में कर्म-नोकरूण को 'निमित्त' ही लिखा है और जीव को 'उपादान' शब्द से ही लिखा गया है। इस तरह अर्थभेद न होते हुए भी बात की है। जो कि उचित नहीं मानी जा सकतो अजीवको बंधका निमय कारण कहा था तब वह उपादान हो तो हुआ और अन्यका पर्य बम्ब प्रकरण में जोवसे भिन्न कर्म-लोकर्म ही होंगे, तब व्यर्थ अर्थभेद कर खण्डन किया गया है यह सहज हो समझा जा सकता है ।
आगे चलकर प्रतियांका २ में यह बताया गया है कि उपादान कारणताकी तरह निमित्तकारणता भी वास्तविक है सो निमित्त कारयताको वास्तविक कहनेका क्या अर्थ है ? इसमें कोई स्पष्टीकरण तथा आगमप्रमाण न होनेसे विचार नहीं किया जा सकता आगममें सर्वत्र निमितको उपहार कारण स्वीकार किया गया है और व्यवहारका अर्थ उपचार है यह पूर्व हम सिद्ध कर आये है। उपादानवस्तुगत कारणताका अन्य वस्तुमें आरोप निश्वयको सिद्धिके लिये ही किया जाता है और इसीलिये जसे निमित्तकारण कहा जाता है और इसीलिये उसमें कत्र्ता आदिका व्यवहार करते हैं।
यही बात बनगारधर्मामृत के प्रथम अध्याय में प्रतिपादित है ।
कर्याचा वस्तुनो भिन्नाः येन निश्चयये । साध्यन्ते व्यवहारोऽसी निश्ययस्तदमेदह ॥ १०२ ॥
अर्थ-जिसके द्वारा निश्चयको सिद्धिके लिये वस्तु कर्ता आदि पाये जाते है, वह व्यवहार है और निश्वय वस्तुसे अभिन्न कर्ता माविकको देखता है।
'मिट्टी से पढ़ा बना है। कुम्भकारने मिट्टीसे घड़ा बनाया है।' उक्त प्रकारसे लोक में दोनों प्रकारके वचनप्रयोग देखे जाते है; ऐसा लिखना ठीक है पर इन बननप्रयोगों में मिट्टी के साथ जैसे घटक अति है देसी कुंभकारके साथ नहीं अनिश्चय कर्ता-कर्म आदि पकारकको प्रवृत्ति उपादानसे है, निमितसे । नहीं यह बात हम समयसार गाथा ८४ की टीकाले अपने उत्तरमें सिद्ध कर आये है ।
इससे भिन जो लिखा है कि पश्चिमन उभयरूप है वह बिना आगम प्रमाणके दिए लिखा गया है, अत: मान्य नहीं हो सकता। यदि परिणमन उभयरूप होता तो पटमें कुंभकारका भी रूप आता पर ऐसा नहीं होता ।
ज्ञान उभयनमसापेक्ष वस्तुव्यवस्थापक है यह निर्विवाद है पर दोनों नयोंमें अस्तु जिस रूप में विवक्षित है उसी रूपसे उसे जानना चाहिये और तभी अनेकान्तको सिद्धि होती है ।