SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शका १० और उसका समाधान ६२३ साथ ही "अज्ञानरूप जीवभावों इस प्रकार प्रवचन पदका निर्देश है। ऐसी अवस्थामै अपर पक्षने उसका अर्थ 'ज्ञानावरण कर्मके उदयसे होनेवाले शानके अभावरूप अज्ञानभाष' कैसे किया, इसका बही शांत चिससे विचार करे। अतएव उस बाक्य परसे यह फलित करना कि 'मोक्षमार्गमें सिर्फ वस्तूस्वरूपके ज्ञानको ही महत्त्व दिया जा रहा है और चारित्रके विषयमं तो यह ख्याल है कि वह तो अपने आप निमित्तिके अनुसार समय आनेपर ही हो जायगा, उसके लिए तरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं है।' कथन मात्र है, क्योंकि हमारा कहना तो यह है कि जो मुमुनु आत्मसिद्धि के लिए प्रयत्नशील है उनके लिए तत्त्वज्ञान पूचक हेय-उपादेयका विवेक और उसके साथ अन्तरङ्ग कषायका शमन करते हुए यथा पदवी चारित्रको स्वीकार कर उसे जीवन का अंग बनाना उतना ही आवश्यक है जितना कि चिरकालसे विपरीत दृष्टि पंगु पुरुषके लिए स्वयं इष्ट स्थान पर पहुँचने के हेतु मार्गदर्शक आँखोंका निर्मल होना और उसके साथ यथाशक्ति पंगुपनेको दूर करते हुए यथासामथ्ये मागेका अनुसरण करना आवश्यक है। हमें इस बात की तो प्रसन्नता है कि अपर पचने प्रकूत में इस तथ्यको तो स्वीकार कर लिया है कि हमारी ओरसे जो प्ररूपणा की जाती है वह वस्तुस्वरूपका ज्ञान करानेके अभिप्रायसे ही की जाती है। उसमें किसी प्रकारकी विपरीतसा नहीं है। तभी तो उसकी ओरसे यह वाक्य लिखा गया है कि 'मोक्षमागमें सिर्फ वस्तुस्वरूपके ज्ञानको ही महत्त्व दिया जारहा है ।' अन्यथा उस पक्षकी शंका चारित्रके विषयमें न उठाई जाकर सम्यक ज्ञानके विषय में उठाई जानी चाहिए थी। परन्तु वस्तुस्थिति हो दूसरी है। वास्तवमें तो वर्तमानमे चारित्रका अर्थ बाह्य क्रिया बतलाकर बाह्य क्रियाकाण्डमें ही जनताको उलझाये रखनेके अभिप्रायसे हमें लांछित किया जा रहा है। इसलिार अपर पक्षको यह प्रवृत्ति अवश्य ही टीकास्पद है, ऐसा हमारा स्पष्ट मत है। सत्वार्थकार्तिक १० १ पृ. १७ में 'सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः' इस सूत्रकी व्यारूपा करते हुए लिखा है एषो पूर्वस्य लाभे भजनोयमुत्तरम् । इन सम्यग्दर्शनादि तीनोम से पूर्व अर्थात् सम्यग्दर्शन और तत्सहचर सम्यग्ज्ञानका लाभ होनेपर सम्पचारित्र भजनीय है। इतसे विदित होता है कि राम्यग्दर्शन के साथ होनेवाला शान ही सम्पज्ञान है, और इन दोनोंके होनेपर जो आत्मस्थितिरूप पारित होता है वही सम्यक्चारित्र है। ये तीनों आत्माको स्वभावपर्याय है, अथवा इन तीनमप स्वयं आत्मा है। क्या अपर पक्ष या यतला सकता है कि ऐसे सम्बकचारिमधर्मका और उसके साथ होनेवाली सदनकल बाह्म प्रवृत्तिका हममें से किसी ने कभी और कहीं निषेध किया है क्या ? निषेध करनेकी बात तो दूर रहो, आत्माके निज वैभवको प्रकाशित करनेवाले अध्यात्मका जहाँ भी उपदेश दिया जाता है वहाँ मही कहा जाता है कि जो केवल 'मैं शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, नित्य हूँ' ऐसे विकल्पमें मग्न होकर लतस्वरूप आत्माको नहीं सनुभवता यह तो मारमासे दूर है ही, साथ ही जो विकल्प और शरीरके आपोन क्रियाधर्मके अवलम्बन द्वारा माशमार्गको प्राप्ति मानता है वह आत्मासे और भो दूर है। अतएव बाह्य क्रियाधर्म में आत्महित है इस पामोह को छोड़कर प्रत्येक भव्य जीन को आत्मप्राप्तिके मागमे लगना चाहिए। यह हम मानते है कि आत्मप्राप्तके मार्गमें लगे अन्य जीवका क्रियाधम सर्वथा छुट नहीं जाता, क्योंकि सम्पदर्शनकी प्राप्तिके
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy