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________________ जयपुर खानिया ) तत्त्वचर्चा इस कथनने प्रगट होता है कि पादानवस्तुगत कारणताका अन्य वस्तु में आरोप निश्चयकी सिद्धि के लिये ही किया जाता है और इसीलिये उसे निमित कारण कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह मा कि पहले तो आप अन्य वस्तमें उपादानगत कारणताका आरोप कर लेते हैं और बादमें उस आरोपित कारणताके आधारपर ही उस वस्तुको आप निमित्तकारण नामसे पुकारने लगते हैं। अर्थात् जब तक उपादानगत कारणताका अन्य वस्तुमें आरोप न हो जावे तब तक उस अन्य वस्तुको भाप निमित्तकारण मानने को तैपार नहीं है। इस विषयमें अब यह विचार उत्पन्न होता है कि 'मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते च उपचारः प्रवर्तते ।' इस नियमके अनुसार स्पचारकी प्रवृत्ति वहीं पर हुआ करती है जहाँ उस उपचार प्रवृत्तिका कोई न कोई निमित्त ( कारण ) विद्यमान रहता है और साथ ही कोई न कोई प्रयोजन भी होता है अर्थात् जिस वस्तु में जिस वस्तुका या यस्तुके धर्मका उपचार करना अभीष्ट हो, उन दोनों वस्तुओंमें जब तक उपचार प्रवृत्तिके लिये कारणभूत कोई सम्बन्ध न पाया जाये तब तक और 'प्रयोजनमनुदिश्य नहि मन्दोपि प्रवतते'–स सिद्धान्त के अनुसार उपचार प्रकृतिका जब तक प्रयोजन समजमें न आ जावे तब तक जपचारकी प्रवृत्ति होना असम्भव ही है। जैसे, 'अन्नं बैसाणाः' यहाँ पर अनमें प्राणों का उपचार तथा 'सिंही माणकः' यहाँ पर बालवमें सिंहका उपचार प्रदशित किया गया है। ये दोनों उपचार इस लिये उचित है कि इनमें उस उपचारकी प्रवृत्ति के लिये साधारभूत निमित्त (कारण) तथा गोगना सद्भाच पाम' नाम है नं ' यहाँपर अन्त में प्राणका उपचार करने के लिये प्राणसंरक्षणरूप कार्यम अवनिष्ठ कारणता हो निमित्त है। और प्राणों के रिमाणमें अलकी महत्ताका भान प्राणियोंको हो जाना हो उस उपचारप्रवृत्तिका प्रयोजन है। इसी प्रकार 'सिंहो माणवकः' यहाँ पर बालक में मिहका उपचार करने के लिये बालक में सिंह सदश शौर्यका सद्भाव निमित्त ( कारण) है और लोको बालकका सिंह के समान महत्त्व प्रस्थापित हो जाना हो उस उपचार प्रवृत्तिका प्रयोजन है, इसलिये ये या इसी किस्मकी और भी उपचार प्रवृत्तियाँ ग्राह्य मानी जा सकती है। अब देखना यह है कि इस अन्य वस्तुमै उपादानवस्तुगत कारणताका उपचार करने के लिये आवश्यक उक्त प्रकारके निमित्त तथा प्रयोजनका सद्भाव क्या यहाँपर पाया जाता है ? तो मालूम पड़ता है कि ऐसे निमित्त तथा प्रयोजनका सद्वान अहाँपर नहीं पाया जाता है, इसलिये उपादानवस्तुगत कारणताका अन्य वस्तुमें उपचारकी प्रवृत्ति होना असम्भव हो समझना चाहिये। यदि कहा जाय कि अन्य वस्तुमै उपादानगत कारणताका उपचार करनेके लिये उस अन्य वस्तुका उपादालवस्तु के परिणमनरूप कार्य में सहयोग देना ही यहाँपर निमित्त (कारण) है और दम तरह लोकमें कार्य के प्रति उगादानकी सहयोगी उम अन्य वस्तुको उपयोगिता प्रगट हो जाना अथवा उगादान वस्तुसे होने वालो कार्वोत्पत्तिमें उपयोगी उस अन्य वस्तु के प्रति मनुष्योंका कार्य सम्पन्नताके लिये आकृष्ट होना ही प्रयोजन है, तो हम आपसे कहेंगे, कि यदि आप उपायानवस्तुगत कारणताका आरोप करने के लिये अपादानसे होने बालो कार्योत्पत्तिमें सहयोग देनेरूप वास्तविक कारणताको उस अन्य वस्तु स्वभावतः स्वीकार करनको तैयार है तो फिर यह बात विचारणीय हो जाती है कि सहयोग देनेला उस कारणताके अतिरिक्त और
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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