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________________ शंका १७ और इसका समाधान ८२३ कसो कारणताका आरोप आप उस अन्य वस्तुमें करना आवश्यक समझते हैं ? साथ ही इस तरह आपके कार्यके प्रसि निमित्तकारणको अर्किचित्करताके सिवान्तका नगड़न प्रसवत हो जायगा। एक बात और भी है यि यदि मनुष्योंका विवक्षिप्त उपादानसे विवक्षित कार्यको उत्पत्तिके अवसरपर सहायक अन्य वस्तुके प्रति आकृष्ट होना ही उक्त उपचार प्रवृत्तिका प्रयोजन है तो यह बात भी आगो 'कार्यके प्रति निमित्तभूत वस्तु अकिचित्कर ही रहती है-इस सिद्धान्तके बिल्कुल विपरीत हो जायगी, कारण कि कार्य निष्पत्तिके अवसरपर निमित्तभूत वस्तुओंके प्रति मनुष्योंका भावर्षण समाप्त करनेके लिये ही तो आपने उक्त सिद्धान्त निश्चित किया है। यह तो ऊपर स्पष्ट किया हो जा चुका है कि निमित्तभत अन्य वस्तु में स्वतः वास्तविक कारणत्व माने बिना निराधार उपचार नहीं किया जा सकता है। दूसरी बात यह कही गई है कि यदि आरोपको सिद्ध करनेके लिये निमित्तभूत अन्य वस्तू में स्वतः बास्तविक कारणता स्वीकार कर ली जाती है तो फिर आरोपवो आवश्यकता हो क्या रह जाती है ? अथवा किस कारणताका आरोप किया जायगा। अब तीसरी बात यह है कि कारणतामें कारणताका तो आशेष किया नहीं जा सकता है, जैसे शवोर बालकमें चूरवीरता का आरोग तो किया नहीं जाता है या अन्नमें कारणताका आरोग नहीं किया जाता है। अतः बालकको बारवीर कहना या अन्नको प्राणोंका निमित्त या सहायक कारण कहना आरोप नहीं है किन्तु वास्तविक है। उसी प्रकार उन अन्य वस्तुओंको निमित्तकारण कहना भी उपचार नहीं हो सकता, किन्तु वास्तविक ही है। हो, जिस प्रकार बालकगत शूरवीरताके आशरपर बालक्रम सिंहत्वका आरोप किया जा सकता है, अन्न में अपनी वास्तविक कारणताके आधारपर प्राणका उपचार किया जा सकता है उसो प्रकार निश्चितभूत अन्य वस्तु में अपनी वास्तविक कारणताके आधार पर उपादानताका आरोप किया जा राकता है, किन्तु कारणताका नहीं। अत: जिस प्रकार बालकको सिंह कहना या अन्नको प्राण कहना उपचार है उसी प्रकार निमित्तभत अन्य वस्तुको उपादान कहना उपचार हो सकता है. किन्तु निमित्तकारण उपचार नहीं हो सकता है । इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि निमित्तभूत अन्य वस्तु में निमित्तता किसी प्रकार भी उपचरित सिद्ध नहीं होती है। उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि यदि आप काय के प्रति निमित्तभूत अस्तुओंम उपादानवस्तुगत कारणताका आरोप करना चाहते हैं, तो इसके लिये आपको उन निमित्तभूत वस्तुओंको कार्योत्पत्तिके प्रति उपादानका वास्तविक सहयोगी स्वभावतः मानना होगा। ऐसी हालतमें फिर निमित्तोंको अकिंचित्कर माननेका आपका सिद्धान्त गलत हो जायगा और यदि आप मनुष्योंको निमित्तोंको उठाघरीसे विस्त करने के लिये निमित्तांकी अकिंचित्करताके सिद्धान्तको नहीं छोड़ना चाहते है तो ऐमो हालतम निमित्त भूत वस्तुगोंको कार्योत्पत्तिके अवसरपर उपादानका सहयोगो स्वीकार करनेका सिद्धान्त आपके लिये छोजमा होगा, लेकिन तब उपादानगत कारणताका निमितभूत वस्तुम बारोप करना असंभव हो जायगा। थोड़ा इस बातपर भो आपको विचार करना है कि आपके पूर्वोक्त सिद्धान्तके अनुसार बिना किसी आधारके पहले अन्य वस्तुमै उपादान वस्तुगत कारणताका आरोप हो जानेपर उसके अनन्सर ही उस अन्य वस्तुमें निमित्त कारणताका व्यवहार किया जा सकेगा तो फिर आपके मतसे प्रतिनियत अन्य वस्तु में हो उपादान-वस्तुगत कारणताका आरोप करनेको व्यवस्था भंग हो जाययो, इस तरह प्रत्येक उपादान वस्तुगत कारणताका आरोप सभी अन्य वस्तु में होने का प्रसंग उपस्थित हो जायगा।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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