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________________ ४८५ शंका ६ और उसका समाधान बड़े होनेसे आकारमें छोटा-बड़ा बन जाता है। पवि जीवको शरीरके प्रभारसे रहित माना जायगा सब यह बात भी नहीं बन सकेगी और इस प्रकार आगमका विरोध होगा।' अपर पक्षने यहाँ पर अन्य जितना कुछ लिखा है उसमें ऐसी कोई नई वासनहीं जिरा पर त्रिदोष ध्यान दिया आय । अन्षय-व्यतिरेकके आधार पर शरोगदि बाह्य सामग्री का कार्यके प्रति क्या स्थान है इसका विस्तारके साथ खुलासा हमने किया ही है । अपर पक्ष यदि आगमको हृदयंगम करके निनाद समाप्त कर ले तो उसका हम स्वागत ही करेंगे। निमित्त म्यवहारके योग्य पर द्रञ्च दुसरं द्रव्यके कार्य में परिवचित मी सहकारिता करता है ऐसी मान्यता हो मिला है। आगम की ऐसी ही आज्ञा है कि एवं च सति मृत्तिकायाः स्वस्वभावानतिकमान्न कुम्भकारः कुम्भस्योत्पादक एव, मृत्तिकैव कुम्मा कारस्वभावमस्पृशन्ती स्वस्वभावेन कुम्भभावेनोस्पराते । -समयसार गा० ३७२ मा० अमृतवन्द्रकृत टीका ऐसा होने पर मिट्टी अपने स्वभावको उल्लंघन नहीं करती, इसलिए कुम्हार वटका उत्पादक ही नहीं है, मिट्टी हो कुम्हारके स्वभावको स्पर्श न करती हुई अपने स्वभाव कुम्भरूपसे उत्पन्न होती है। यदि अपर पः 'जब कुम्हार घट बनानेका विकल्प कर रहा था तथा उसके अनुकूल व्यापार कर रहा था उस समय मिट्टी स्वयं घदरूप परिणमी इतना ही सहकारिताका अर्थ करता है तो बात दूसरी है । आचार्याने इसे ही कालपत्यासत्ति शब्द द्वारा स्त्रीकार किया है। अपर पक्षने 'तादृशी जायते बुद्धिः' इस वचनको पेटभर आलोचना करते हुए इसे जैन संस्कृति की मान्यताके विरुद्ध घोषित किया है, इसे उस पक्षका अतिसाहस ही कहा जायगा । इस सम्बन्ध कहना है कि-'पद्य में कार्य के प्रति भवितव्यताके साथ-साथ कारणभूत जिन बुद्धि व्यवसाय आदिका उल्लेख किया गया है उनको उत्पत्ति अथवा सम्प्राप्तिको उसो भनितपताकी दया पर छोड़ दिया गया है जो इस कार्यकी जननी है। वस । यही उस में असंगति है और इसलिए वह जैन संस्कृतिको मान्यताके विरुद्ध है।' इस सम्बन्ध में हम अपर पक्षसे अधिक क्या कहें, इतना ही कहना चाहते हैं कि वह पन व्यामोहमें पड़कर यदि ऐसी गैरजिम्मेदारीकी टीका न करता तो यह जैन संस्कृतिको सबसे बड़ी सेवा होती। इसे जैन परम्पराके आधारस्तम्भ भगवान् अकलंक देवने एकान्त पुरुषवादका निषेध करने के प्रसंगसे उद्धृत किया है इसे नहीं भूलना चाहिए। और जब उन जैसे समर्थ आवार्यने इसे उद्धृत किया है तो इसमें सन्देह नहीं कि उन्हें इसमें जैन मान्यताके समन बीज दृष्टिगत हए होंगे। प्रत्येक कार्यके प्रति जितने भी कारण स्वीकार किये गये हैं उनमें भवितव्यता या योग्यता मुख्ता है, क्योंकि यह कार्यको उत्पन्न करने के लिए द्रव्यगत आन्तरिक शक्ति है। इसी तथ्यको स्वामो समन्तभदने स्वयंभूस्तोत्र में इन शब्दों में स्वीकार किया है अलंध्यशक्ति विलन्यतेयं हेतुद्याविकृतकार्यलिंगा। अनीश्वरो जन्मरह क्रियातः संहत्य कार्यविति साध्ववादीः ।।३३।। हेतुद्वयसे उत्पन्न हुआ कार्य जिसको पहिचान है ऐसी यह भवितव्यता अलंध्यशक्ति है। फिर भी मैं करता है ऐसे अहंकारसे पीड़ित यह प्राणी सब सहकारी कारणों को मिलाकर भी कार्योके सम्पन्न करने में अनीश्वर-असमर्थ है यह आपने ठीक ही कहा है ।।३।।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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