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जयपुर (खानिया)
चर्चा
आचार्य ने इसमें 'तारशी जायते' इस श्लोक के समान 'भक्तिभ्यता पर ही जोर दिया है। और देखिए---
तत्रापि हि कारणं कार्येणानुपक्रियमाणं यावत् प्रतिनियतं कार्यमुत्पादयति तावत्सर्वं कस्मान्नोपादयतीति चोथे योग्यतैव शरणम् ।
- प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० २३७
उसमें भी कारण कार्य से अनुपक्रियमाण होता हुआ जब तक वह प्रतिनियत कार्यको उत्पन्न करता है। तब तक सबको उत्पन्न क्यों नहीं करता ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं कि योग्यता ही शरण है । इसमें भी 'ताशी जायसे' इत्यादि श्लोक के समान भवितव्यता पर ही बल दिया गया है। और देखिए
चतुरंगबलं कालः पुत्रा मित्राणि पौरुषम् । कार्यकृन्तावदेवात्र यावचलं परम् ॥ देवे तु त्रिकले काल-पौरुषादिर्निरर्थकः । इति मिति नान्यथा
इस लोक में जब तक देव ( भवितव्यता ) का उत्कृष्ट बल है तभी तक चतुरंग सेना, काल, पुत्र, मित्र और पौरुष ये कार्यकृत हैं । देवके अभाव में काल और पौरुष आदि सब निरर्थक हैं ऐसा जो विद्वान् जन कहते हैं वह यथार्थ है, अन्यथा नहीं है ।
- हरिवंशपुराण सर्ग ५२, श्लो०७१-७२ ॥
हरिवंशपुराण में और देखिए---
दिव्येन दमानायां दहनेन तदा पुरि। नूनं क्वापि गता देवा दुर्वारा भवितव्यता ॥
उस समय द्वारिकापुरोक्रे दिव्य अग्निसे जलते समय निश्चयसे देव कहीं भी चले गये । भवितव्यता दुनिवार है ।। सर्ग ७७, ६१ ।।
देखिये इस भवितव्यता को दुनिवार कहा गया है। क्या अपर पक्ष यह बतलाने की कृपा करेगा कि भट्टाकलं वने 'ताशी जायते' इत्यादि एलोकको उद्घत कर उस द्वारा हरिवंशपुराणके इस कथनसे अन्य नई क्या बात कही है ? जिससे कि अपर पक्षको वह श्लोक अत्यधिक खटका ! वास्तव में देखा जाय तो उस श्लोक में जैन मान्यताका सार भरा हुआ है। उस द्वारा पुरुषार्थ तथा अन्य साधन सामग्रीको अस्वीकार नहीं किया गया है। ये सब भवितव्यता के अनुसार मिलते हैं यहो तथ्य उस द्वारा घोषित किया गया है। किन्तु अपर पक्षको यही इष्ट नहीं है, क्योंकि वह केवल बाह्य साधन सामग्रोके बलपर ही कार्यको उत्पत्तिको स्वीकार कराना चाहता है, इसके लिए उसकी ओरसे उपादानके स्वरूप पर भी प्रबल प्रहार किया गया हैं । ऐसी अवस्थामें उसके द्वारा भट्टाकलंकदेव जैसे समर्थ आचार्य द्वारा स्वीकृत उक्त क्लोकको यदि जैन संस्कृत्तिके विरुद्ध घोषित किया जाय तो इसमें अनहोनो ऐसी कोई बात नहीं ।
स्वामी समन्तभद्रने अपनी आप्तमीमांसा में 'दैव' और 'पुरुषार्थरूप' अदृष्ट और दृष्ट सामग्री के आधारसे अर्थसिद्धि में अनेकान्तगर्भ स्याद्वाद की स्थापना की इसमें सन्देह नहीं । पर इसका 'वादशी जायते'