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________________ शंका १० और उसका समाधान ६११: परिणाम निमित्तमात्र से जो परस्पर विशिष्टतर अपवाह होता है वह तदुभयवन्ध है। इसी प्रकार दोसे अधिक परमाणुओंका परस्पर निमित्तमात्र विशिष्टतर परस्पर अवगाहलक्षण जो बन्म होता है यह कहलाता है।' आगे आपने लिखा है कि वैशेषिक दर्शन में संयोगको जैसा स्वतन्त्र गुण मा है वैसा जिनागममें संयोगकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं स्वीकार की है और इस आधारपर आपने यह निष्कर्ष निकाला है कि उपर्युक्त प्रकार दो द्रव्यों परस्पर निमितभाषसे जो विशिष्टतर परस्पर अवगाहरूपसे बग्ध होता है वह व्यवहारनयका आश्रय लेकर ही होता है । इसमें निम्न बातें विचारणीय है (१) इस बन्धमें आपने जो परस्पर बद्ध होनेवाले दो द्रव्योंमें परस्पर निमित्तता स्वीकार की है उस परस्पर निमित्ततारो आपका अभिप्राय क्या है ? (२) विशिष्टतर परस्पर अवगाहले आपने क्या समझा है ? (३) व्यवहारनयका आश्रय लेकर वन्य होता है इसमें व्यवहारमय और उसको बन्ध होने आश्रयताका क्या आशय है ? इसके भी आगे आपने लिखा है कि उक्त प्रकार से परस्पर बग्गाहको प्राप्त होकर भी घनेवाले दोनों द्रव्य या दोसे अधिक सभी द्रव्य अपने अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूपसे पृथक् पृथक् ही अपनो अपनी सत्ता रखते है, अतएव आपका कहना है कि निश्वश्रनयसे बन्ध नहीं है। इसके लिए आपने पचास्तिकायगाचा कोकाका प्रमाण भी उपस्थित किया है, जिसके आधारपर आपने कहा है कि 'निश्वयसे परमाणुको पुद्गल द्रव्य कहा जाता है और व्यवहारसे स्कन्धको पुल द्रव्य कहा जाता है।' इसमें भी हमारा आपसे प्रश्न है कि पृथक-दो आदि परमाणुओं या दो बादि परमाणुओं में आप क्या अन्तर स्वीकार करते हैं? और उस अन्तरको बाप वास्तविक मानते हैं। या नहीं ? हमने यह प्रदन आपके समक्ष इसलिये उपस्थित किया है कि हम देखते हैं कि जहाँ पृथक्-पृथक् अनेक परभणु व्याघात रहित हैं वहाँ हम यह भी देखते हैं कि अनेक परमाणुओंका स्थूल स्कन्ध म्याघाट सहित देखने में भाता है। हम देखते हैं कि शरीर में पोट लगने पर जीव और नोकरून पुदगलके एकरूप पिण्डका ही यह परिणाम है कि जीवको दुःखका अनुभव होने लगता है। बरसात में जो नदियों में पानी की बाद माती है और वह जो हमारे सामने प्रलयका दर्दनाक रूप उपस्थित कर देती है यह भी अनेक पुद्गल परमाणुओं के स्थूल एक खण्ड स्वरूपताका ही परिणाम है। कहाँ तक गणना की जाय, जो कुछ भी दृश्य जगत है ह सब जी और पुद्गल एवं नागा परमाणुओंके सत्य में अनुभूत होनेवाले का हो परिणाम है तो आपकी दृष्टया यह सब अवास्तविक ही है अर्थात् कुछ नहीं है क्या ? और यदि कुछ है और वह वास्तविक है तो फिर निश्चय एवं व्यवहारका जो भेद आग बतला रहे है उसका फलितार्थ क्या है ? कृपया स्पष्ट कीजिये । जहाँ तक हमने आपके लेखसे यह समझा है कि जीव और पुद्दलके परस्पर बन्धमें तथा नाना परमाणुओं के बम्बमें जो कुछ स्कन्धरूपता देखने में भाती है उसे आप अवास्तविक हो मानना चाहते हैं तो हम पुनः आपसे पूछना चाहते है कि सर्वज्ञको इस अवास्तविक पिण्डरूप जगत्का ज्ञान होता है या नहीं? इस
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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