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________________ शंका १७ और उसका समाधान ८२९ इस विवेचनसे लोगोंका यह भय भी समाप्त हो जाना चाहिये कि निमित्त कतत्व, निमित्तकरणस्व. आदिको वास्तविक माननेसे निमित्तों में द्विपक्कियाकारिताकी प्रसक्ति हो जायगो, क्योंकि अपने प्रतिनियत निमित्तोंके सहयोगले अपनी उपादान शक्ति के परिणामस्वरूप जो एक व्यापार उन निमित्तोंका हो रहा हो वह व्यापार हो उपादानकी परिणप्ति होने के कारण उपादेय है और चूंकि निमित्तोंके सहयोगसे उत्पन्न हुया है इसलिये नैमित्तिक है तथा वहो व्यापार अन्य वस्तुके परिणमनमें सहायक है इसलिये निमित्तकर्ता आदि रूप में निमिसकारण भी है। इस विवेचनसे यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है कि निमित्त में उपादानगत कारणताका उपचार नहीं होता है, क्योंकि 'सति निमित्त प्रयोजने च उपचारः प्रवर्तते', उपचारका यह लक्षण वहां घटित नहीं होता है। इसलिये जिस प्रकार उपादान कारण अपने रूप में वास्तविक अर्यात सद्भुत है उसी प्रकार निमित्त कारण भी अपने रूपमें वास्तविक अर्यात सद्भुत ही हे, कल्पनारोपित (असद्भुत) नहीं। इसी प्रकार व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयोंके विषय में यही व्यवस्था समझना चाहिये 1 अर्थात् जिस प्रकार निश्चय अपने रूपमें वास्तविक है उसी प्रकार व्यवहार भी अपने रूपमें वास्तविक अर्थात् सद्भुत ही है। समयसार गाथा १३ और १४ को आत्मच्याति टोकामें व्यवहारको अपने रूपमें भूतार्थ ही स्वीकार किया है और उत्प्त व्यवहार में जितना भी अभूतार्थताका प्रतिपादन किया गया है बहू कंवल निश्चयकी अपेक्षासे ही किया गया है अर्थात् जिस प्रकार निमित्त में विद्यमान निमित्तता निमित्तता ही है वह उपादानता रूप नहीं हो सकती है, इसलिये उपादानतारूप न हो सकने के कारण अवास्तविक होते हुए भी निमित्तारूपसे वह वास्तविक ही है, उसी प्रकार व्यवहार व्यवहार ही है वह निश्चय कभी नहीं हो सकता है, इसलिये निश्चयप न हो सकने के कारण अवास्तविक होते हए भी व्यबहाररूपसे वह वास्तविक ही है। यह बात हम पहले ही बतला आये हैं कि एक वस्तुके धर्मका आरोप अन्य उस वस्तुम वहीं होता है जहाँ उपचारका उल्लिखित लक्षण घटित होता है । इस प्रकार उपचारके आधारपर बस्तुको ही उपचरित कहा जाता है। और इस तरह वस्तु के दो धर्म हो जाते हैं एक उपवरित धर्म और दूसरा अनुपरित धर्म । इनमेंसे जो ज्ञान उपचरित धर्मको ग्रहण करता है वह उपवरित ज्ञाननय कहलाता है और जो सान अनुपरित धर्मको ग्रहण करता है वह अनुपचारित जाननय कहलाता है। इसी प्रकार जो वचन उपचश्ति धर्मका प्रतिपादन करता है वह उपचरित वचननय कहलाता है और जो वचन अनुपचारित धर्मका प्रतिपादन करता है वह अनुपचरित वचननय कहलाता है। नोट-इस विषय में प्रश्न नं. १, ४, ५, ६ और ११ पर . अवश्य दृष्टि डालिये। तथा इनके प्रत्येक सौरका विषय देखिये । मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दायों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ।। शंका १७ उपचारका लक्षण क्या है ? निमित्त कारण और व्यवहारमें यदि क्रमशः कारणता और नयत्वका उपचार है तो इनमें जपचारका लक्षण घटित कीजिए ?
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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