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जयपुर ( खानिया) सश्वचर्चा है, निश्चयनयसे नहीं है। व्यवहारनयके पूर्व 'मात्र' शब्द लगाया गया है और कहीं कहींपर व्यवहारनयके आगे कोष्टक में 'उपचरित' शब्द भी दिया गया है। इस सर्वले यही प्रगट किया जाता है कि एकमात्र निश्चयमय ही सर्वथा तथा एकान्त सत्य है, प्रामाणिक एवं मान्य है। तथा व्यवहारमय सर्वथा असत्य, अप्रामाणिक और अमान्म है। यह निर्विवाद सिद्धान्त है कि ऐसी मान्यता ही निश्चय एकान्तरूप मिथ्यात्व अथवा निश्चयाभास है। व्यवहारसे निरपेक्ष निश्चयनय मिथ्या है। पर सापेक्ष नय सुनम है। भगवान का उपदेश ही दो नयके आधीन है। यदि मत्रहारनयका कथन असत्य है तो यह प्रश्न होता है कि क्या सवंजने व्यवहार सम्यक्त्व व व्यवहारमोक्षमार्गका असत्य उपदेश देकर जीनोंका अकल्याण करना चाहा है।
प्रत्येक द्रव्य उत्पाद-व्यय-नोव्यमयी है। निश्चयकी अपेक्षा द्रव्य ध्रव ही है। उत्पाद-व्ययस्वरूप नहीं है। व्यवहारको अपेक्षा उत्पाद-व्यमस्वरूपाही है, घव नहीं है । यदि निश्चयनर ही सत्य व प्रामाणिक है और व्यवहारनय असत्य ब अप्रामाणिक है, तो मात्र प्र.वही सत्यम प्रामाणिक रह जायगा और उत्पादव्यय असत्य ब अप्रामाणिक हो जायेंगे । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि धबता अप्रणाशी और कूटस्प है जिसके कारण दृष्य भा अप्रणाशी व कूदस्य हो जायगा । कूटस्थ हो जानेसे द्रव्य अर्थक्रियाकारी नहीं रहेगा । इसलिये बह खरविषाणवत असत हो जायगा। निश्चयनयके एकान्तसे द्रव्यको सत्ता ही सिद्ध नहीं होती है, पोंकि सतका लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रुव कहा गया है।
जैन आगम में व्यस्वभाव परिणामी बतलाया गया है। उत्पाद के बिना परिणमन नहीं हो सकता है। इस प्रकार जैन आगममें ध्रुवताके समान उत्पाद-पयको भी सत्य माना है, अन्यथा सोरुपमतका प्रसंग आजायेगा । अतः मात्र निश्चयनयके कथन को ही सत्य व प्रामाणिक स्वीकार करना और व्यवहारनवके कथनको 'मात्र व्यवहारसे' या 'उपचरितसे' आदि शब्द कहकर स्वीकार न करता जैन आगमके विरुद्ध है। अन्य मतावलम्बियोंका कथन भी किसो-न-किसो एक नयकी अपेक्षा सत्य होनेपर भी प्रतिपक्षी नयसे निरपेक्ष तथा सर्वथा वैसा ही माना जानेसे मिण्या है।
श्री अमृतचन्द्र आचार्यने समयसार गाथा ५६ की टोकामें निश्चयनयको द्रष्याश्रित और व्यवहारमयको पर्यायाश्रित कहा है। बन्ध व मोम पर्याय हैं। निश्चयनयको अपेक्षासे न बन्ध है और न मोम है। यदि निश्चयनयसे बन्ध माना जाये तो सदा बन्ध हो रहेगा, कभी मोक्ष नहीं हो सकेगा। यदि निश्चयनयसे मोक्ष ही माना जाये तो वह भी घटित नहीं हो सकता है, क्योंकि मोक्ष (मुक्त होना-छूटना) बन्धपूर्वक हो होता है । बंधा ही नहीं, उसके लिये छूटना कैसे कहा जा सकता है । मोक्ष 'मुञ्च' धातुसे बना है, जिसका अर्थ 'छूटना है। -०द्र० सं० टीका ।
जब निदचयनय ( जिसको ही सत्य व प्रामाणिक कहा आ रहा है ) से बन्ध व मोक्ष हो नहीं है, तब जिनशासनमें जो मोक्षमार्गका उपदेश दिया गया है, वह सब व्यर्थ हो जायगा। दूसरे प्रत्यक्षसे विरोध आ जायगा, क्योंकि संसार प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है । अतः यह ही सिद्धान्त सम्यक है कि निश्चयनय अर्थात् स्वभावको अपेक्षा न बन्ध है और न मोक्ष है, किन्तु व्यवहारनय (पर्याय) को अपेक्षा बन्च भी है और मोक्ष भी है । ये दोनों ही कथन सत्व ब प्रामाणिक है। ऐसा नहीं, कोई नयका कथन सत्य व प्रामाणिक हो और प्रतिपक्षी नयका कथन असत्य व अप्रामाणिक हो।
प्रत्येक नयका विषय अपनी दृष्टिसे सत्य है, किन्तु ध्यबहारनयकी अपेक्षा सत्य नहीं है, क्योंकि दोनों के विषय परस्पर विरोधी हैं।