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प्रथम दौर
नमः श्री वीतरागाय मगलं भगवान् चीरो मङ्गलं गौतमो गणी। मङ्गले कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्माऽस्तु मङ्गलम् ।
शंका १० जीव तथा पुद्गलका एवं यणुक आदि स्कन्धोंका बन्ध वास्तविक है या अवास्तविक ? -यदि अवास्तविक है तो केवली भगवान उसे जानते हैं या नहीं।
समाधान १ इस प्रश्नका सम्यक उसर प्राप्त करने के लिए पहले जोन और पुद्गल तथा दो आदि परमाणांक मध्य किस प्रकारका बन्ध जिनागममें स्वीकार किया गया है यह जान लेना आवश्यक है। जीव और पुद्गल के बन्धका निर्देश प्रवचनसार गाथा १७७ की दीका में इस प्रकार किया है
या पुनः जीव कर्मघुद्गलयोः परस्परपरिणामनिमितमानवम विशिष्टतरः परस्परमवगाहः स तदुभयबन्धः ।
जीव तथा कर्मपुद्गलके परस्पर परिणामके निमित्तमात्रसे जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह होता है घह तदुभयवन्ध है।
इसी प्रकार दो या दो से अधिक परमाणुओंका परस्पर निमित्तमात्र विशिष्टतर परस्पर अवगाह लक्षण जो बन्ध होता है वह स्कन्ध कद्लाता है।
जिस प्रकार वैशेषिक दर्शनमै संयोगको स्वतन्त्र गुण माना गया है उस प्रकार जिनागम मे उसकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार नहीं की गई है। यही कारण है कि हाँ व्यवहारनयका आश्रय लेकर दो द्रश्योके परस्पर निमित्तमात्रसे जो विशिष्टतर परस्पर अबगाह होता है उसे बन्वरूप स्वीकार किया गया है।
ऐसी अवस्थामें यदि स्त्रचतुष्टयको अपेक्षा विचार करते है तो दो या दो से अधिक द्रव्य उक्त प्रकार परस्पर अवगाहको प्राप्त होकर भी अपने अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूपसे पृथक-पृथक हो अपनीअपनो सत्ता रखते हैं. अतएव निश्चयनयसे बन्ध नहीं है । जैसा कि स्कन्धको अपेक्षा पंचास्तिकाय गाथा ८१ को टोका में कहा भी है।
स्निग्ध-रूक्षत्वप्रत्ययवधशादनेकपरमापवेकवपरिणतिरूपस्कन्धान्तरितोऽपि स्वभावमपरित्यज्यन्नुपायसंख्यवादेक एव द्रयमिति ।
अर्थ-स्निग्ध-रुक्षत्वके कारण बन्ध होनेसे अनेक परमाणओंको एकत्व परिणतिरूप स्कन्ध के भीतर