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________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा के साथ आभ्यन्तर व्याप्ति होती है उसी प्रकार अनुकुल दूसरे एक या एकसे अधिक पदार्थों में कार्यको बाह्म ज्याप्ति नियमसे उपलब्ध होती है। एक मात्र बस्तुस्वभावके इस अटल नियमको ध्यानमें रखकर परमागममें जिसके साथ आभ्यन्तर व्याप्ति पाई जाती है उसे उपादान कर्ता आदि कहा गया और उस काल में जिस दूसरे पदार्थ के साथ बाह्य व्याप्ति पाई जाती है उसमें निमित्तरूप व्यवहारका अवलम्बन कर जिसमें करूिप व्यवहार होता है उसे का निमित्त कहते है, और जिसमें कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण कारकका व्यवहार होता है उसे कम निमित्त, करपा निमित्त आदि कहते है। इस प्रकार कार्यके अनुकल पर द्रव्यको बिक्षित पर्यायमें कर्ता निमित्त आदिका किस प्रकार उपचार होता है इसका सम्यक् प्रकार जान हो जाता है। यहां माम्यन्तर ध्याप्ति और बास व्याप्ति आदिके विषयमें जो कुछ लिखा गया है उसकी पुष्टि समयसार गाथा ८४ की टोकासे होती है। वहाँ लिखा है बहिाप्यध्यापकभाषेन कलशसम्भवानुकूल व्यापारं कुर्वाणः कलशकृततोयोपयोगजो तृप्तिं भाष्यभावकभावेनानुभवश्च कुलालः कलशं करोस्यनुभवति चेति लोकानामनादिस्टोऽस्ति तावद व्यवहारः । सथान्तरन्याप्य-व्यापकभावेन गुदगलद्रव्येण कर्माणि क्रियमाणे मास्य-भावकमावेन पुदगलद्रव्यमेवानुभूयमाने च...। बाह्य-व्याप्य-व्यापकभावसे घड़ेकी उत्पत्तिमें अनुकुल ऐसे (इच्छारूप और हाथ आदिकी क्रियारूप अपने) व्यापारको करता हुआ तथा घड़के द्वारा किये गये पानीके उपयोगमें उत्पन्न तप्तिको (अपने तस्तिभावको) मान्य-भावकभाव के द्वारा अनुभव करता हुआ-भोगता हुआ, कुम्हार धड़ेका कर्ता है ओर मोक्ता है ऐसा लोगोंका अनादिरून व्यवहार है। उसी प्रकार आभ्यन्तर कमाएग-व्यापक भालसे पुदगल द्रव्य कर्मको करता है और भाव्यभावकभावसे मुद्गल द्रव्य हो कर्म को भोगता है....। व्यवहारनम नयज्ञानका एक भेद है। उसका कार्य जहाँ जैसा व्यवहार किया जाता हो उसको जाननामात्र है, उसे उसी रूपमें जानता है। इसलिए उसकी परिगणना सम्यम्मानमें की जाती है. अतः उसमें किसी प्रकारके उपचार करने का कोई प्रयोजन न होने से वह अनुपचारित ही है। द्वितीय दौर शंका १७ प्रश्न यह था-उपचारका लक्षण क्या है ? निमित्त कारण और व्यवहारनयमें यदि क्रमशः कारणता या नयत्वका उपचार है तो इसमें उपचारका लक्षण घटित कीजिये? प्रतिशंका २ इस प्रश्नके उत्तरमै यद्यपि आपने उपचारका लक्षण परके सम्बन्ध (आश्रय)से व्यवहार करना' बतलाया है, परन्तु इस लक्षण में जो व्यवहार शब्द पड़ा हुआ है उसका जब तक अर्थ स्पष्ट नहीं हो जाता तब
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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