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________________ ४२४ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा उत्पत्ति अथवा संप्राप्तिको स्वीकृतिका कोई अर्थ हो नहीं रह जाता है अर्थात् जब वह भवितव्यता हो कार्योत्पत्ति के साथ साथ उनमें कारणभूत बुद्धि व्यवसाय आदिको भी जुटा देती है तो फिर अकेली भवितआता ही कार्यको उत्पन्न कर सकती है, अतः उसकी उत्पत्तिके लिये बुद्धि, व्यवसाय आदि साधनों को आबश्यकता नहीं रहना चाहिए | यदि आप कहें कि इसलिये हो कार्यकी उत्पत्ति आपके मत में केवल उपादानसे स्वीकार को गयी है । तो इसपर हमारा कहना यह है कि उक्त पद्य भी जब भवितब्वता के साथ बुद्धि, व्यवसाय आदिको उपयोगिताको कार्यसिद्धिमें स्वीकार कर रहा तो इस पद्यको कार्य कारणभावकी आपके लिये मान्य व्यवस्थाका समर्थक कैसे कहा जा सकता है ? श्री पं० फूलचन्द्रजीने तो जैन तस्वमीमांसाके उपादान निमितमीमांसा प्रकरण में पृष्ठ ६७ पर परिमली मोना ३८१ वा उद्धरण देकर यह सिद्ध करनेका प्रयास किया है कि 'तादशी जायते बुद्धि:' इत्यादि पद्य में प्रतिपादित कारणव्यवस्थाको जैन संस्कृति में भी इसी स्वीकार किया गया है, क्योकि पं० प्रवर टोडरमलजीनं भी अपने कथनमें कार्यके प्रति कारणभूत बुद्धि, areer आदिको भवितव्यताको अधीनता पर ही छोड़ दिया है। उनका वह कथन निम्न प्रकार है: जो इनकी सिद्धि हाय तो कषाय उपशमन में दुःख दूर होइ जाइ सुखी होइ । परन्तु इनकी सिद्धि इनके किये उपाय के आधीन नाहीं, भवितव्य के आधीन है। जानें अनेक उपाय करते देखिये है अर सिद्धि न हो है । बहुरि उपाय बनना भी अपने आधीन नहीं, भषितव्य के आधीन है । जाते अनेक उपाय करना विचार और एक भी उपाय न होता देखिये हैं । बहुरि काकतालीयन्याय करि भवितथ्य ऐसी हो होय जैसा आपका प्रयोजन होइ तैसा ही उपाय होइ अर तातें कार्यकी सिद्धि भी होड़ जाइ तो तिस कार्य सम्बन्धी कोई कषायका उपशम होइ । पं० फूलचन्द्र जोने पंडितप्रवर टोडरमलजी के इस कथन के विषय में अपना मंतभ्य भी यहीं पर लिख दिया है कि 'यह पं० प्रवर टोडरमलजीका कथन है— मालूम पड़ता है कि उन्होंने ( पं० प्रवर टोडरमलजीने) 'ताशी जायते बुद्धि:' इत्यादि इस श्लोकको ध्यान में रखकर ही यह कथन किया है, इसलिये इसे दक्त अर्थके समर्थन में ही जानना चाहिये ।' इस विषय में हमारा कहना यह है कि पं० फूलचन्द्रजी पं० प्रवर टोडरमलजी के उल्लिखित कथन से जो वक्त अर्थ फलित कर रहे है वह ठीक नहीं है, क्योंकि हम बतला आये हैं कि जैन संस्कृति में केवल भवितव्य से कार्य सिद्धि न मानकर भवितव्य और पुरुषार्थ दोनोंके परस्पर सहयोग से ही कार्यसिद्धि मानी गयो है। इसलिये जैन संस्कृतिके इस सिद्धान्तको ध्यान में रखकर ही पं० प्रवर टोडरमलजी के कथनका आश्रय निकालना चाहिये । पुनश्च इसी मोक्षमार्गप्रकाशक में पं० टोडरमलजीने भवितव्यता और पुरुषार्थका दूसरे ढंगसे निम्न प्रलार कथन किया है कालच या होनहार तो किछु वस्तु नाहीं । जिस काल विष कार्य बने सोई काललग्धि और जो कार्य भया सोइ होनहार । बहुरि जो फर्मका उपशमादिक है सो पुगलकी शक्ति । साकी आरमा कर्ता हर्ता नाहीं । बहुरि पुरुषार्थ उद्यम करिए है सो बहु करि उद्यम करनेका उपदेश दीजिए है। यहाँ यह आत्मा आश्रमका कार्य है । तातै आमाको पुरुषार्थ जिस कारणते कार्यसिद्धि अवश्य होय, तिस
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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