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शंका ६ और उसका समाधान एवं अन्य सहायक कारणोंको अपेक्षा होती भी हो तो वे बुद्धि, ब्यबसाय आदि सभी कारण भी उक्त पथके उक्त अर्थ के अनुसार भवितव्यताकी अधीनतामें ही प्राप्त हुआ करते है।
चूंकि उक्त व्यवस्था जैन संस्कृतिमें मान्य नहीं है, किन्तु जैन संस्कृतिकी मान्यता के अनुसार प्राणियोंके प्रत्येक अर्थको सिद्धि देव और पुरुषार्थ दोनों ही पररपरके सहयोगी बन कर समानरूपसे कारण हुआ करते है, अत: उक्त पद्यकी जैन संस्कृति को मान्यताके साथ विरोधकी स्थिति निर्विवाद हो जाती है। इससे यह रात भी अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि जैन संस्कृतिकी मान्यताके विरुद्ध होनेके कारण इस पद्यको थापके द्वारा अपने पक्षकी पुष्टिमें प्रमाणरूगसे उपस्थित किया जाना अनुचित ही है।
श्रीमदक..कदेवने उक्त पद्य का उद्धरण जो आप्तमीमांसाकी ८९ वी कारिकाकी अष्टशती में दिया है उसमें उनका आशय हमसे सामाद अपने पक्षकी पुष्टिका न होकर केवल पुरुवार से प्रसिद्धि माननेवाले दर्शनके स्तुण्डन करनेमात्रा ही है । यदो कारण है कि उक्त पद्यको उन्होंने जैन संस्कृतिका अंग न मानकर केवल लोकोक्ति के रूपमें हो स्वीकार किया है। यह बात उनके (श्रीमदकलंकदेवके द्वारा उक्त पद्य के पाठके अनन्तर पठित 'इति प्रसिद्रो' वाक्यांश वारा ज्ञात हो जाती है!
तात्पर्य यह है कि श्रीमदकलंकदेव उन लोगोंसे जो दैवकी उपेक्षा करके केवल पौरुषमात्रसे प्राणियों की अर्थसिद्धि मानते है--यह कहना चाहते है कि एक ओर तो तुम देवके बिना केवल पुरुषार्धसे ही अर्थको सिद्धि मान लेते हो और दूसरी ओर यह भी कहते हो कि अर्थसद्धिमें कारणभूत बुद्धि व्यवसायाविकी उत्पत्ति या संप्राप्ति भवितव्यलासे ही हुआ करती है।
इस प्रकार वृद्धि-व्यवसायादिकी उत्पत्ति अथवा संप्राप्तिम देवको कारणता प्राप्त हो जानेसे परस्पर विरोधी मान्यताओंको प्रश्रय प्राप्त हो जाने के कारण केवल पुरुषार्थ से ही अर्थसिद्धि हो जाती है यह माग्यता खण्डित हो जाती है।
एक बात और है कि उक्त पद्यका जो अर्थ आपने क्रिया है वह स्वयं ही एक तरहसे आपकी इस मान्यताका विरोधी है कि कार्य केवल भवितब्यता (समर्थ उपादान) से ही निमग्न हो जाया करते है, निमित उसमें किचकर ही रहा करते है। क्योंकि उक्त पदार्थ हमें इस बातका संकेत देता है कि कोई भी कार्य भवितव्यता (उपादान शमित)के साथ साथ बुद्धि, व्यवसाय आदि कारणों का सहयोग प्राप्त हो मानेपर ही निष्पन्न होता है। केवल इतनी विशेषता उससे अवश्य प्रगट होती है कि बुद्धि, व्यवसाय आदि सभी दूसरे कारण भवितव्यके अनुसार ही प्राप्त हुआ करते हैं । लेकिन इस तरहसे उसे बुद्धि, व्यवसाय आदिमें कारणताका नियेधक नहीं कहा जा सकता है।
यदि कहा जाय कि उक्त पद्य जब उक्त प्रकारसे भवितव्यताके साथ साथ बद्धि व्यवसाय आदिको भो कार्यके प्रति कारण बतला रहा है तो फिर उसे जैन संस्कृति में मान्य कारण व्यवस्थाका विरोधी कहना ही गलत है। तो इस विषयमें हमारा कहना यह है कि पद्यमें कार्यके प्रति भवितव्यताके साथ साथ कारणभूत बुद्धि, व्यबसाय आदिका कल्लेख किया गया है, उनको उत्पत्ति अथश संप्राप्तिको उसो भवितव्यासाकी दया पर छोड़ दिया गया है जो इस कार्यको जननी है। बस, यही उसमें असंगति है और इस लिये बह जैन संस्कृतिको मान्यताके विरुद्ध है, क्योंकि जिस भवितव्यतासे कार्यकी उत्पत्ति होती है उसी भवितव्यतासे उस कार्यमें कारणभूत बुद्धि, व्यवसाय बादिकी उत्पत्ति अथवा संम्प्राप्तिको जैन संस्कृतिम मान्य नहीं कहा गया है। कारण कि कार्यकी उत्पत्ति जिस मविलक्यतासे होती है उसी भवितव्यतासे कारणभूत बुद्धि, व्यवसाय मादिको