SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२२ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा ___तृतीय कारिकामें उन्होंने देव और पुरुषार्थ दोनोंसे ही पृथक् पृथक् अर्थसिधि माननेवालों के विषयमें जो कुछ लिखा है उसका भाष यह है कि किसी अर्थसिद्धिमें देवकी और किसी असिञ्चिमै पुरुषार्थको कारण मानने की संगति स्यादवाद सिद्धान्तको स्वीकार किये बिना संभव नहीं हो सकती है, अत: जो लोग स्याद्वाद सिद्धान्त के विरोधी है अनके मत से किसी अर्थसिद्धि मे देवको और किसी अर्थसिद्धि में पुरुषार्गको कारण माना जाना संगत नहीं हो सकता है। इसी तृतीय कारिकामे आगे उन्होंने देव और पुरुषार्थ दोनों ही में युगात् अर्थसिद्धिकी साधनता रहने के कारण अवक्तव्यतायः एकन्तिमा दीका करजहों के विषयमें जो कुछ लिखा है उसका भाव यह है कि अवक्तव्यताके इस सिद्धान्तको अवक्तध्य शशब्दसे प्रतिपादन करने पर स्ववचनविरोधरूप दोषका प्रसंग उपस्थित होता है। इसके बाद अन्तमें चतुर्थ कारिका द्वारा उन्होंने देव और पुरुषार्थ दोनोंकी पृथक् पृथक् रूपसे वक्त. न्यता और अपृथकरूपसे अबक्तव्यताके आधार पर सप्तमंगीका प्रदर्शन करते हा जन संस्कृति द्वारा मान्य परस्परगापेक्ष देव और पुरुषार्थ भयम अर्थसिद्धिको समान बलवाली साधनताका निष्ठापन दिया है। अष्टसहस्री में आप्तमीमांसाको ८८ वी कारिकाको व्याख्या करते हुए अन्त गं आचार्य विद्यानन्दीने मोक्षको सिद्धिको भी दैत्र और पुरुषार्थ दोनोंके सहयोगसे ही प्रतिपादित किया है। यह कथन निम्न प्रकार है: मोशस्यापि परमपुण्यातिशयचारित्रविशेषात्मकपोररुषाम्यामेष संभवात्' अर्थ....."परम पुण्णका अतिशय तथा चारित्र विशेषरूप पृथ्वार्थ दोनों के सहयोग से मुक्तिको भी प्राप्ति हुआ करती है। इस प्रकार स्वामी रामन्तभद्रद्वारा प्रस्थापित तथा धीमद् भट्टाकलंकदेव और आचार्य विद्यानन्दी द्वारा दृढताके साथ समश्रित जैन कांस्कृति में मान्य अर्थसिद्धिकी सक्त देव और पुरुषार्थ उभयनिष्ट साधनताके प्रकाशमें श्रीमद् भट्टाकलंब.देवने आप्तमीमांसाको कारिका ८६ की टीका करते हुए अष्टशती में 'ताशी जायते बुद्धिः' इत्यादि उल्लिखित पय उद्धन किया है और भगाकरकदेवके अभिप्रायको न समझकर उन्हीं फा बल पाकर श्री पं० फूलचन्द्रजी ने अपनी जैन-तत्त्वमीमांसा पुस्तकों तथा आपने अपने प्रत्युत्तरमे कार्यको सिद्धि केवल समर्थ उपादानसे ही हो जाया करती है, निमित्त यहां पर अकिंचित्कर ही रहा करते है इस सिद्धान्त की पुष्टि के लिये उक्त पद्य उद्धृत किया है। इस पदको लेकर हमें यहां पर इन बातोंका विचार करना है कि यह पा जन संस्कृत्तिकी मान्यताके विरुद्ध क्यों है और यदि विरुद्ध है तो फिर थीमदकलंकदेवने इसका उद्धरण अपने अन्य अष्टशती में किस आशयसे दिया है तथा जैन संस्कृति में मान्य कारण-व्यवस्थाके साथ उसका मेल बैठता है तो किस तरह बैठता है ? इतना ही नहीं, इसके साथ हमें इस बातका भी विचार करना है कि इसको सहायताले श्री पं० फूलचन्द्रजी और आप कारण व्यवस्था सम्बन्धी अपने पक्षको पुष्टि करने में कहां तक सफल हो सके हैं । यह तो निश्चित है कि 'तारशी जायते बुद्धिः' इत्यादि रूपमें अथित उक्त पथ आपके द्वारा प्रतिपाषित उल्लिखित अर्थक आधार पर प्राणियोंकी अर्थसिद्धि के विषयमें जैन संस्कृतिद्वारा मान्य देव और पुरुषार्थको सम्मिस्ति कारणताका प्रतिरोध ही करता है ! कारण कि उक्त पश्चके उक्त अर्थसे यही ध्वनित होता है कि प्राणियोंको अर्थसिद्धि केवल भवितव्यताके अधीन है और यदि उस अर्थसिद्धि प्राणियोंकी बुद्धि, व्यवसाय
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy