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शंका ६ और उसका समाधान
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रागभावसे प्राप्त हों अथवा चाहे विनसा प्राप्त हो, कायोत्पत्ति में उपयोगी स्वीकार कर लिया जाये: क्योंकि यदि कार्योत्पत्तिमें उनके उपयोगको स्वीकार नहीं किया जाता तो आपकी इस मान्यताका भी फिर कोई अर्थ नहीं रह जाता कि 'उस समयमें नियत उपादानके अनसार होनेवाले नियत कार्यों के नियत निमित्त मिलते अवश्य है। क्योंकि क्यों मिलते है ? किस लिये मिलते है ? या पुरुष उनके मिलानेका क्यों प्रयत्न करता है? इत्यादि समस्याएँ तो आपके सामने आपकी इस मान्यताको-कि उपादानसे ही कार्य उत्पन्न हो जाता है मिमित्त तो वहाँ पर अफिनिकर ही बना रहता है-ण्डित करने के लिये तैयार खड़ी है।
आगे आप फिर लिखते है कि विविर लोकिक उदाहरणोंको उपस्थित कर जो अपनी चित्तवृत्तिके अनुसार कार्य-कारणपरंपराको बिठानेका प्रयत्न किया जाता है यह युक्तियुक्त नहीं है और न आगमसंगत है।'
इसके विषयमें हमारा कहना है कि उदाहरण लौकिक हो चाहें आगमिक हों, उनके विषयमें देखना तो यह है कि वे उदाहरण, अनुभव, तक तथा आगमप्रमाणोंके विम्ब तो नहीं है ? यदि वे उदाहरण बापकी दृष्टिरो अनुभव, तक तथा आगम प्रमाणोंके विरुव हैं तो उनकी इम प्रमाण विरुद्धप्ताको दिखलाना आपका कत्तंब्य था जब कि हम अनुभव. तर्क और आगमप्रमाणीसे उन उदाहरगोंको संगति पूर्वमें बतला
आपने चित्तवृत्तिके अनुसार कार्यकारणपरंपराको बिठानेमें असंगति बतलाने के लिये भी आचार्य अमृतचन्दके समयसारकलशमा 'आसंसारत एष घावति' इत्यादि ५५ दशं पद्य प्रमाण रूपसे उपस्थित किया है।
इसके विषय में भी हमारा कहना यह है कि इससे निमित्त के साथ कार्यके वास्तविक कार्यकारणभावका निषेध नहीं होता है और न इस तरह के कार्यकारणभावके निषेध करने की आवार्य महाराजकी दृष्टि ही है । इस पद्यसे तो वे केवल हम शतकाही निषेध करना चाहते है कि लोक में अधिकांश ऐसी प्रवत्ति देखी जाती है कि प्राणी मोहकमक उदयके वशोभन होकर अपने निमित्तसे होनेवाले कार्यो में अपने अन्दर अहंकारका विकल्प पैदा करता रहता है जो मोहभाव होने के कारण बन्यका कारण है. अतएव त्याज्य है । लेकिन । इसका अर्थ यह नहीं है कि अपने निमित्तसे होनेवाले कार्यों में अपनी निमित्तताका भान होना असत्य है । यदि बंपने निमित्तसे होनेवाले कार्यों में अपनी निमित्ततताका ज्ञान भी असत्य हो जाय तो फिर मनुष्य किसी कार्य करने में प्रवृत्त भी कैसे होगा? कुम्हारको यदि ममझमें आ जाय कि घड़े का निर्माण सानमें पड़ी हुई मिट्टी से अपनी क्रमवर्ती क्षणिक पर्यायोंके आधार पर स्वतः समय आने पर हो जायगा तो फिर उसमें तदनुकूल पुरुषाध करनेको भावना ही जाग्रत क्यों होगी? इसी प्रकार एक शिक्षकको यदि यह समझमें आ जावे कि छात्र अपनी क्रमवर्ती क्षणिक पर्यायों के आधार पर स्वत: हो समय आने पर पढ़ लेगा तो फिर उसे सस्तकल पुरुषार्य करने की भावना क्यों जायत होगी? हम सब कथनका रहस्य यह है कि निमित्तोंके' सहारे पर कार्य निष्पन्न होता है व सिद्धान्त ठीक है, इसका जिसे शाम होता है वह भी ठोक है और इस जानके अनुसार जो कार्योत्पत्ति के लिये तदनुकूल पुरुषार्थ करता है वह भी ठीक है । परन्तु कार्योत्पत्तिके लिये उपयोगी अपनी निमित्तताके आधार पर यदि कोई मनुष्प उबल विषय अहंकारो बन जाता है तो आचार्य अमृतचन्द्रने उक्त कलश पद्य दाग यह दर्शाया है कि ऐसा अहंकार करगा बुरा है और यह कर्ममन्धका कारण है। विवेकी सम्यग्दृष्टि पुरुष कार्यके प्रति अपना-निमित्तरूप वास्तविक ज्ञान और व्यापार करते हुए