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जयपुरे (खानिया ) तस्व चर्चा
विशिष्ट उसे वे अवश्य जानते हैं। यह केवलज्ञानकी महिमा है। इसी महिमाका निर्देश घवला वर्गणाखण्ड प्रकृति अनुयोगद्वार के 'सहं भयव' इत्यादि सूत्र में किया गया है ।
अपर पक्ष आगम प्रतिपादित वस्तुव्यवस्थाकं विचारके प्रसंगसे प्रवचनसार गाया ८७ देनेके बाद ‘अस्थो खलु दब्यमञ्ज’ गाया और उसकी आचार्य अमृतचकृत टीका उपस्थित की हैं. 1
अपर पक्षने इस टीकाका जिम रूपमें अर्थ किया है उसमें हम नहीं जायेंगे । यहाँ ती मात्र टीका बाधारसे विचार करना है ।
अपर पक्ष इसके अन्त में लिखता है कि 'उक्त गाथाको यह टीका जीव तथा पुद्गलकी बन्धपर्यायको एवं घणुकादिरूप स्कन्धको वास्तविकताका उद्घोष कर रही है।'
यह तो प्रत्येक समझदार अनुभव करेगा कि टीकामे नयदिमाग किये बिना सामान्यसे निर्देश क्रिया गया है । यहाँ दो या दो से अधिक पर्यायोंको एक कहा गया है। इससे यदि कोई यह समझे कि उन अथ्योंको स्वरूपमत्ताका स्थाग होकर यह मनुष्यादिरून या मणुकादिरूप परिणाम उत्पन्न हुआ है मो यह बात नहीं है । यदि अपर पक्ष उसी प्रवचनगारकी गाथा १५२ को ज्ञानार्थ अमृतचन्द्रकृत टोका पर दृष्टिपात कर लेता तो यह वर्णन किस अपेक्षासे किया गया है यह स्पष्ट हो जाता। वहीं लिखा है
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स्वलक्षणभूतस्त्ररूपास्तित्त्व निश्चितस्यैकस्यार्थस्य स्वलक्षणभूतस्वरूपावित्वनिश्चित एवान्यस्मि अथें विशिष्टरूपतया सम्भावितात्मलाभोऽथों ऽनेकद्रव्यात्मकः पर्यायः । स खलु पुद्गलस्य पुद्गलान्तर इष जीवस्य पुद्गले संस्थानादिविशिष्टतया समुपजायमानः सम्भाव्यत एव । उपपन्नश्चैवंविधः पर्यायः । अनेकद्द्रव्यसंयोगाध्मथ्वेन कंवलजीवच्यतिरेकमा यस्यैकद्रव्यपर्यायस्यास्वहितस्यान्तरा वासनात् ।
स्वलक्षणभूत स्वरूपास्तित्वसे निश्चित एक द्रव्यका स्वलक्षणभूत स्वरूपास्तित्वसे हो निश्चित दुसरे द्रव्य में विशिष्ट (देश-भावप्रत्याशत्ति) रूपसे उत्पन्न होता हुआ अर्थ (भाव) अनेक द्रव्यात्मक पर्याय है । वह नियमसे जैसे एक पुद्गल की दूसरे वृद्गल में तत्पस होती हुई देखी जाती है वैसे ही जीव की पुद्गलमें संस्थानादि विशिष्टरूप से उत्पन्न होती हुई अनुभव में आती हो है । और ऐसो पर्याय नियम से बन जाती है, क्योंकि जो केवल जीवको प्रतिरकमात्र है ऐसी अस्खलित एक द्रव्यपर्यायका अनेक द्रव्योंके संयोगरूपसे भीतर अव भासन होता है ।
इससे स्पष्ट है संयोग अवस्था में भी जीवकी पर्याय जीवमें होती है और पुद्गलकी पर्याय पुद्गल में होती है । वहाँ संयोग अवस्था में जो रूप रसादिरूप परिणाम होता है वह पुद्गलका ही होता है, जीवका नहीं | और इसी प्रकार ज्ञान दर्शनादिरूप जो परिणाम होता है वह जीवका ही होता है, पृदुगलका नहीं 1 रूप- रसादिरूप और ज्ञान-दर्शनादिरूप ये दो परिणाम एक कालमें एक साथ होते हुए स्पष्टतया प्रतिभासित होते हैं । ऐसी अवस्था में बन्धमें अनेक द्रव्योंकी पर्यामको यथार्थ में एक कहना उचित नहीं है । व्यवहारनय से ही वे एक कही गई हैं । संस्थानादिके विषयमें तथा ह्यणुकादिकं विषयमें भी इसी न्यायसे विचार कर लेना चाहिए ।
पंचास्तिकाय गाथा ७४ में जो स्कन्ध बादिका निर्देश किया है सो उसका विचार भी उक्त न्यायसे कर लेना चाहिए । स्लोवाकि० ४३० मे निश्वयनय और व्यवहारनग इनकी अपेक्षा क्रमशः अणु और स्कन्ध इन भेदों को स्वीकार किया गया है, सो इससे भी पूर्वोक्त अर्थका ही समर्थन होता है । तत्त्वार्थसूत्र अ०५ के 'भेद-संघातम्य उत्पद्यन्ते' (सु० २६ ) इस सूत्र में देश- भावप्रत्यासतिरूप परिणामको 'संघात' और इसके भंग होनेको 'भेद' कहा गया है। अष्टसहस्री पृ० २२३ द्वारा भी यही भाव