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________________ शंका १० और उसका समाधान ६२९ आगम में व्यवहारनयके आश्रयसे व्यवहाराश्रयाद्यश्च ( नयचक्रादिसं० पृ० ७९ ) तथा 'व्यवहार. नमकी अपेक्षा' बवहारादी ( नवचक्रादिरांच० पृ० ७८ इस तरह दोनों प्रकारके प्रयोग मिलते हैं। अतः किसी प्रकार भी लिखा जाय इसमें बाधा नहीं है। उसे में यह समझना चाहिए कि प्रथम उत्तर में लिखे पर अपर पक्ष द्वारा शंका उपस्थित करने पर अपने दूसरे उत्तर में हमने उसका स्पष्टीकरण माथ किया था। : ४ : I पौधे प्रश्नका समाधान यह है कि 'पधिकादिगुणानां तु' ( त० सू० ५ ३६) सिद्धान्त अनुसार प्रत्येक परमाणु विभावरूप होता हुआ देशप्रत्यासतिको शप्त हो जाता है। इसका नाम ब प्राप्त बन्ध है । जिनागम में दो या दो अधिक परमाणुओं का ऐसा ही स्वीकार किया गया है। इस प्रकार जिनागमसे बन्धकी व्यवस्था बन जाती है। हमारा कहना भी यहां है यदि अपर पक्षको हमारे कचनमे और जिनागमके कथनमें कहीं अन्तर प्रतीत होता था वो उसका निर्देश करना था क्या जिनगम में बन्धको अद्भूत व्यवहारनयका विषय नहीं लिखा है और क्या जिनागममें अमद्भूत व्यवहार और उपचारको एकार्थक नहीं लिखा है ? जब कि ये दोनों वाजिनागम में लगी है तो अपर पक्ष इन्हें इसी रूपमें स्वीकार करनेमें क्यों आनाकानी करता है? यदि उस पक्षको जिनागभ में जो जिस रूप में लिखा है वह उसी रूप में स्वीकार है तो हम उससे आग्रहपूर्वक निवेदन करते हैं कि उस पक्षको 'उपचार' पदका अर्थ कल्पनापित लिखना छोड़ देना चाहिए । : ५ : पाँच प्रश्नका समाधान यह है कि वर्तमान जिमागमे निश्चयनय और व्यवहारभयकी प्ररूपणा जिस रूपये की गई है वह जिनवाणी होती है यह जिनदेवने ही तो कहा है कि निश्चयको भूतार्थ कहते है और व्यवहारको अभूतार्थ कहते है भूतार्थका आश्रय करनेवाले मुनि निर्वाणको प्राप्त होते है अतः वे इस कथन के प्रतिपाय अर्थको नियमसे जागते है। वास्तविक बात यह है कि यदि अपर पक्ष उपचारको कल्पनारोपित कहना छोड़ दे तो केवलज्ञानमें वे विषय किस प्रकार प्रतिभासित होते है यह आसानी से समझ आ जाय, क्योंकि उनके ज्ञान से यह भाता है कि पटके निश्चय षट्कार मिट्टी में ही हैं उसी प्रकार यह भी भागता है कि जब जब मिट्टी पट रूपसे परिणमत है तब तब कुम्भकारादिशी अमुक प्रकारकी क्रिया नियमसे होती है। वे यह अच्छी तरहसे जानते है कि निश्चय षट्कारक धर्म जिराके उसी में होते हैं, दूसरे में नहीं होते। किसका किसके साथ अम्बयतिरेक है इसे हम अल्पज्ञानी तो जान लें और वी न जान सकें यह कैसे हो सकता है। आकाश कुसुम नहीं है, इसलिए वह उनके ज्ञानका विषय नहीं, पर यदि कोई आकावाकुसुमका करता है तो उसे ये अश्श्य जानते है। अपर पक्ष पिण्डको सत्ताहीन कहता है। किन्तु बात ऐसी नहीं है, क्योंकि संख्यात, अस्थत और अन्य परमाणुओं की देवकृत और माकृत को प्रत्यासति होती है उसीको माग संपत या कयादि नामोंसे पुकारा गया है। ऐसी प्रत्यासत्तिका निषेध नहीं निषेध है उन परमाणुओं की स्वरूप मलाके छोड़नेका अतः इस रूप में केवलोक कथा ज्ञान नियमसे होता है इसमे बाधा नहीं। देशकृत और भावकृत प्रत्यासतिरूपसे गधे के सींग नहीं होते न हों पर गाय-भैंस आदि तो होते है। इसी प्रकार देश-भावकृत प्रत्यासतिरूपसे आकावकुसुम नहीं होता न हो पर वृक्षोंमें, लता और गुल्मों से होते है। जहाँ जिस रूप में को होता है वहाँ उस रूपये कालविशेषण L
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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