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________________ १० और उसका समाधान ६३१ are किया गया है। जब अनन्तानन्त परमाणु देश-भावप्रत्यासत्तिपनेको प्राप्त होते हैं तब उनमें स्कन्ध व्यवहार बन कर धारण आकर्षण आदि क्रियाओंकी भी उत्पत्ति हो जाती है। इससे स्कन्ध क्या वस्तु है यह भी स्पष्ट हो जाता है और परमाणुओंको स्वरूपसत्ता भी बनी रहती है। अपर पक्ष स्कत्व या बन्ध वास्तविक यह तो लिखता है पर उनका स्वरूप क्या है यह स्पष्ट नहीं करना चाहता | २७ का वहाना वस्तव्य है उसमें किस रूपमें एकत्व स्वीकार किया गया है इसके लिए तत्वार्थदलोकवार्तिक पृ४३० के इस वचन पर दृष्टिपात कीजिये जीव-कर्मणोर्वग्धः कथमिति चेत् ? परस्परं प्रदेशानुप्रवेशान्न विकल्पपरिणामामोरं ग्यानुपपतेः । दांका और पुद्गलका बन्ध है? समाधान- परस्पर प्रवेश अनुप्रवेशले उनका वन्य है एकत्व परिणामसे नहीं, क्योंकि दोनों एक द्रव्य नहीं हैं । अपर पाले यहाँ इन स्कन्ध आदि और मनुष्यादिपर्यायी उत्पत्ति मिश्रण से बतलाई है। यदि वह मिश्रण शब्दका स्पष्टीकरण कर देता तो वह पक्ष क्या कहना चाहता है यह समझ में आ जाता। अपर पक्षने मूलद्रव्य काल और स्वभाव इन दोनोंको अनित्य माना है इसका हमें आश्चर्य है। स्वकाल तो व्यतिरेकरूप होनेसे अनित्य होता है इसमें सन्देह नहीं पर स्वभाव तो अवधी होता है, वह अनित्य कैसे होता है। यह वही जाने माना स्वकाल अनित्य होता है पर प्रत्येक द्रव्यको पर्याय उसकी उसीमें तो होगी। वह अनित्य है, इसलिए वह स्वरूपचतुष्टय से बाहर नहीं की जा सकती। जैसे प्रत्येक द्रव्यका स्वरूप य मुक्त अवस्थामे बना रहता है ये वह संयोग अवस्था भी बना रहता है। संयोग अवस्था विभागका होना और मुक्त अवस्था में स्वभाव पर्यायका होना यह अन्य बात हैं । परमाणुओं का स्वरूपास्तित्य बना रहकर भी देश-भावप्रत्यासत्तिविशेषके कारण स्कन्धव्यवहार होता है तथा सूक्ष्मता, स्थूलता, वृश्यता या अदृश्यता बन जाती है। इसीको अवर पक्ष पुगलों परिवर्तित स्वास्तिको लिये हुए स्कन्धपरिमति कह रहा है। - ― वह सत्य है, वास्तविक है उसे नहीं मानोगे जैनदर्शन नैयायिक दर्शन के समान संयोगको गुण नहीं मानता इसे अपर पक्षने स्वीकार कर लिया इसकी हमें मन्नता है। किन्तु अपर पलने जो संयोगको दो का बन्धात्मक परिणमन बतलाया को विवाद तो इसमें है कि यह क्या है? अपर पक्ष यह तो सिता है कि तो यह आपत्ति आयेगी, वह आपत्ति आयेंगी आदि, पर वह है क्या ? यह नहीं लिखता । कल्पनारोपित आदि कुछ शब्द पुन रखे हैं, इसलिए घूम-फिर कर उन शब्दोंका प्रयोग कर देना तथा व्यवहारयके वक्तव्य को उपस्थित कर तले परमार्थभूत ठहरानेका उपक्रम करना यह कोई वस्तुशिद्धिका प्रकार नहीं है। अस्तु, जैन दर्शनको तया स्कम्प आदिको किस रूपमें स्वीकार किया है इसका हमने आगम प्रमाणके साथ स्पष्ट निर्देश किया है। हमें विश्वास है कि अपर पर उसे स्वीकार कर इस विवादको समाप्त कर देगा।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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