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________________ शंका १६ और उसका समाधान अपने द्वारा जानता हूँ' इसमें जिस प्रकार कर्म (घट) की प्रतीति होती है उसी प्रकार कर्ता (मैं), करण (ज्ञान) और क्रिया (जानना) की प्रतीति होती है। शब्दका उच्चारण किये बिना भी जैसे पदार्थका अनुभव होता है वैसे ही स्वका भी अनुभव होता है। ऐना कौन होगा जो ख़ान करि प्रतिभासित अर्थको तो प्रत्यक्ष इष्ट करे और तिस ज्ञानको इष्ट न करे ? अर्थात् इष्ट करे ही करें। जैसे दीपक के प्रत्यक्षता और प्रकाशता बिना तिस करि भासे जे घटादिक पदार्थ तिनके प्रकाशता प्रत्यक्षता न बने, तेसे ही प्रमाणस्वरूप ज्ञान के भी जो प्रत्यक्षतान होय तो तिस करि प्रतिभास्या अर्थके भी अर्थात् प्रतिभास्या अर्थके भी प्रत्यक्षता न बने । هایی जिस प्रकार घट-पट आदिकी ओर उपयोग ले जाकर जाननेका कोई नियत काल नहीं है, उसी प्रकार स्वोन्मुख होकर स्वको जानने का भी कोई नियत काल नहीं है, क्योंकि सर्व कार्योंer faarमक कोई नियत काल नहीं है, किन्तु बाह्य आभ्यन्तर समर्थ कारणसामग्री कार्यकी नियामक है। यदि मात्र कालको ही सब कार्योका कारण मान लिया जाय तो अन्य सर्व कारण सामग्रीका ही लोप हो जायगा । जैसा कि अकलंकदेवने कहा है— यदि हि सर्वस्य कालो हेतुरिष्टः स्यात् बाह्याभ्यन्तरकरणनियमस्त्र रष्टस्येष्टस्य वा विरोधः स्यात् । — सरार्थवार्तिक १३ जो सम्पत्ति के लिये मात्र काललब्धिको प्रतीक्षा करते रहते है ये पुरुषार्थहीन पुरुष प्रभावी होकर अपने इस मनुष्वभवको ऐशोआराम ( आनन्द - विनोद) में व्यर्थ खो देते हैं । आगे आपने लिखा है 'यात्रकके उत्कृष्ट विशुद्धरूप परिणामोंका आलम्बन छोड़ सर्व प्रथम अप्रमतभावको प्राप्त होता है ।' करणानुयोग के विशेषज्ञको भलिभांति ज्ञात है कि सप्तम गुणस्थान में प्रत्याख्यान कषायोदयका अभाव होनेसे श्रावक के पंचम गुणस्थानकी अपेक्षा अप्रमससंयत गुणस्थानवाले मुनिके परिणामों की विशुद्धता अनन्तगुणो है अर्थात् श्रावककी उत्कृष्ट विशुद्धता अप्रमत्तरांयतकी विशुद्धतामें लोन हो जातो है अथवा श्रावक के उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामोंके द्वारा मुनिदीक्षाका कार्यक्रम होकर अप्रमत्तसंयतकी अनन्तगुणी विशुद्धता प्राप्त होती है। विशुद्धता छोड़ो नहीं जातो, किन्तु प्रति प्रति गुणस्थान बढ़ती जाती है । जैसे पीपरको ६३ व पुटवाली चरपराहट छोड़कर ६४ व पुटवाली वरपराई उत्पन्न नहीं होती है, किन्तु ६३ वी पुढवाली परपराहट ही उत्कर्ष करके ६४ व पुढवाली चरपराहटरूप परिणमित हो जाती है । आपने लिखा है- 'अहिंसादि अणुव्रत और महाव्रत यादि शुभ विकल्प होता है, जोकि राग पर्याय है उसको यहाँ व्यवहारधर्म कहा गया है। सो सामायिक छेदोपस्थापना संयमको व्याख्या के विरुद्ध से बाक्स लिखे गये हैं जो शोभनक नहीं है। व्रतका तथा सामायिक छेदोपस्थापनाका लक्षण इस प्रकार है हिंसानृतस्ते पात्र अपरिमद्देभ्यो विरति तम् । --सरकार्थसूत्र ७-१ अर्थ - हिंसा, असत्य, बोरी, अब्रह्म और परिग्रहसे निवृत्त होना व्रत है । सर्वसावयनिवृसिलक्षण सामाथिकापेक्षया एकं व्रतं तदेव छेदोपस्थापनापेक्षया पंचविधमिहोच्यते । - सर्वार्थसिद्धि ७-१ अर्थ- सम पापोंसे निवृत्त होनेरूप सामायिकको अपेक्षा एक व्रत है। वही व्रत दोपस्थापना की अपेक्षा पाँच प्रकारका है । २४
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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