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________________ जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा एगो अणादियमिच्छादिही अपरित्तसंसारो अधापवत्तकरणं अपुवकरणं भणियट्टिकरण मिदि एदाणि सिण्णि करणाणि कादूण सम्मशं गहिदपढमसमए चेव सम्मत्तगुणेण पुचिल्लो अपरितो संसारो ओह टिवूण परित्तो पोगालपरियष्वस्स अमेत्ती होवूण उक्कसेण चिट्ठदि, जहष्णण अंतोमुत्तमेसी। -धवल पु० ४ पृ० ३३५ ___ अर्थ-एक अनादि मिश्यादृष्टि अपरीत संसारी ( दीर्घ संसारी) जोच अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण ओर अनिवृत्तिकरण इस प्रकार इन तीनों ही करणोंको करके सम्यक्त्व ग्रहणके प्रथम समयमें ही सम्यवस्व गुणके द्वारा पूर्ववर्ती अपरोत संसारीपना हटाकर व परीतसंसारी (निकट संसागे) हो करके अधिक से अधिक पुद्गल परिवर्तनके आधे कालप्रमाण ही संसारन हरता है भाग पाहूर्त माह कार तक संसारमें ठहरता है। एक्केण अणादिद्यमिच्छादिट्टिणा तिण्णि करणाणि कादूण उबसमसम्म पनिवपणपढमसमए अणंतो संसारो छिण्णो अपांग्गलपरियहम सो कदो। -धवल पु. ५, पृ० ११, १४, १५, १६, १९ अर्थ-एक अनादि मिध्यादष्टि जीवने प्रधःप्रय सादि तीनों करण करके उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होने के प्रथम समय अनन्त संसारको छिन्नकर अर्धपदगलपरिमाणमात्र कर दिया । एक वेणुदण्डपर विचित्र चित्र बने हुए हैं, उनको प्रक्षाल अर्थात् को डालनेपर वह बेणुदण्ड (बाँस) शुद्ध निर्मल हो जाता है इसी प्रकार इस जीवके अनन्त काल लम्बी भविष्य नाना प्रकारकी संसारी पर्याय पड़ी हुई है, किन्तु सम्यग्दर्शनके द्वारा उन भविष्य अनन्त पर्यावोंको धो देता है। इसी बातको श्री जयसेन माचार्य इन शब्दों द्वारा लिखते हैंयथा वेणुदण्डो विचित्रचित्रप्रक्षालने कृते शुद्धो मवति तथायं जीवोऽपि । -पंचास्तिकाय गाथा २० टीका उपर्युक्त आगम प्रमाणोंसे तथा राजवातिक अ०१ सू०३ से यह सिद्ध हो जाता है कि सम्यक्त्वोपत्तिका कोई गियत काल नहीं है। किन्तु जब कभी यह सभी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव अपने ज्ञानको अन्य ज्ञयोंसे हटाकर स्वोमुख होता है तब अन्य शेयोंकी तरह स्थका ज्ञान भी इसको हो जाता है। स्वका ज्ञान होना दिन नहीं है, क्योंकि ग्रह रात-दिन कहता रहता है कि 'मैंने यह कार्य किया, मैंने यह कार्य किया' इन वाक्याम 'मैं' शब्दका उच्चारण तो करता है, किन्तु 'म' की ओर लक्ष्य न रहकर कार्यकी ओर लक्ष्य रहता है। यदि यह अन्धकी ओरसे लक्ष्य हटाकर 'मैं' की ओर लक्ष्य ले जावे तो 'मैं' अर्थात् 'स्व'का बोध होना काठन नहीं है, क्योंकि ज्ञान स्व-पर प्रकाशक है। यह हो बात परीक्षामुख प्रथम अध्यायमें इन सूत्रों वारा कही गई है स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञानं प्रमागं । स्वोन्मुखतथा प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायः । अर्थस्येच तदुन्मुखतया । परमहमात्मना वेभि । कर्मवत्कर्तृकरणक्रियाप्रतीतेः 1 शम्दानुधारणेऽपि स्वस्थानुभवनमर्थवत् । को वा तत्प्रतिभासिनमर्थमध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत, प्रदीपवत् । -सूत्र व ६-१२ अर्थ-स्त्र और अपूर्व अर्थका व्यवसायात्मक शान ही प्रमाण है। जैसे पदार्थकी ओर उन्मुख होनेसे पदार्थका निश्चय होता है वैस ही स्वकी ओर उन्मुख होनेसे स्वका निश्चय (निर्णय) होता है, 'मैं घटको
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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