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जयपुर (स्वानिया ) तत्त्वचर्चा एक दो शब्दोंको लिखकर मात्र यह लिखा है--'इसी प्रकार 'आप्तीपज्ञ' 'आप्तवचनादिनिबंधन' 'आले वरि' युनिशास्त्राधिरोधवाक'का प्रयोग पूर्वोक्त प्रकारसे ही किया गया है। इन चार प्रमाणोंका इन गोलमाल पाउदा द्वारा मात्र उल्लेख किया गया है, उत्तर कुछ नहीं दिया गया। इस प्रकार प्रश्नके खण्ड नं०४ व ५ के विषय में भी हमारे प्रमाणोंका उत्तर न देकर अपनी पूर्व मान्यताको हो पकड़े रहे। प्रथम उत्तरमें आपने लिखा था 'दी मा दोसे अधिक द्रव्यों और उनकी पर्यायोंमें जो सम्बन्ध होता है वह असन्द्रत हो होता है ।' हमने पूछा था कि 'असद्भत' से आफ्ना क्या आपाय है ? किन्तु आपने इस विषयमें एक अक्षर भी नहीं लिखा।
आपने अपने द्वितीय उत्तरमें आगमविरुद्ध तथा अपनी मान्यताके घिद्ध दो द्रव्यों तथा उनकी पर्यायोंमें परस्पर कन्किर्मके कुछ सिद्धान्त लिख दिये हैं जो कि प्रासंगिक है, क्योंकि कर्ता-कर्मसम्बन्धी मल प्रश्न ही नहीं है। आपने प्रश्न नं.१ के प्रथम उत्तरमें यद्यपि निमित्तकर्ताको स्वीकार करनेसे इन्कार कर दिया, किन्तु द्वितीय उत्तरमें हेतुकर्ता अर्थात निमितकर्ताको स्वीकार कर लिया है। सर्वार्थसिद्धि अन्यके आधारपर कालद्रव्यको भी हेतुकर्ता स्वीकार किया है। इतना ही नहीं, आपने प्रथम तथा द्वितीय उत्तरमें निम्न शब्दोंके द्वारा जीवको जड़ द्रव्यका कर्ता स्वीकार कर लिया है। फिर भी आप इस प्रश्न के उत्तरमें हेतुकर्ताको स्वीकार नहीं कर रहे हैं। इस प्रश्नके प्रथम उत्तरमें आपने लिखा है....इसकी टीवा करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते है । 'आचार्य श्री अमृतचन्द्र जो समयसार गाया ४१५ को टोकामें कहते हैं इस वाक्यने कर्ता तो आचार्य अमृतचन्द्र है जो चेतन पदार्थ और कर्म बहरूप वाक्य है जो कि उनके द्वारा लिखे गये है और जिनको आपने प्रमाणस्वरूप उद्धृत किया । आपने जो यह लिखा है---'आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं या कहते हैं' मात्र इसलिये लिखा है कि आपके द्वारा उद्धृत किये गये वाक्योंम श्री अमृतचन्द्र आचार्यको प्रमाणतासे प्रमाणता
आ जावे, अन्यथा आपको इन पदोंके लिखनको कोई आवश्यकता न थी। इसी प्रकार आपने द्वितीय उत्सरमें निम्न पदोंका प्रयोग किया है-'आचार्यवर्य कुन्दुकुन्द और अमृतचन्द्रमूरिके आगमप्रमाण देकर मीमांसा की गई थी। उसका अर्थ आचार्य अमृतचन्द्रने स्वाभाविक किया है । आचार्य कुन्दकुन्दने तो स्त्रियोंको मायाके समान बतलाया है। साथ ही अमृतचन्द्रसूरिने अपनी टीका मेंघका दृष्टान्त देकर यहाँ स्वाभाविक पदका क्या अर्थ है. यह और गो स्पष्ट कर दिया है। प्रयत्नके बिना ही उनके धर्मोपदेश आदिकी क्रिया होती है। कहा भी है।' 'श्री अमतचन्द्रसूरिने समयसारके अन्त में शब्दागमके स्वरूपको बतानेवाले जो बचन लिखे है। इन सब वाक्योंमें शब्द पद वाक्य जड़रूप पदार्थोका कर्ता चेतनद्रव्य आचार्य महाराज है। इस प्रकार चेतनद्रव्य और जड़ पदार्थम कर्ता-कर्मसम्बन्ध आपके वचनों ही द्वारा सिद्ध हो जाता है।
श्री कुन्दकुन्द भगवान्ने समयसारकी प्रथम गाथा 'वोच्छामि समयपाहतुमिणमो सयकवली-भगिपर्य' इन वाक्यों द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि इस समषाभूतके मूल का अर्थात् कहनेवाले श्री फेवली तथा अत-केवली है और उत्तर प्रन्यकर्ता मैं (कुन्दकुन्द आचार्य) हूँ।
गाथा ५ में 'दाएहं अप्पणी सविहवेण' इन शब्दों द्वारा यह बतलाया गया है कि 'भात्माके विभव द्वारा दिखलाता हूँ।' श्री अमृतचन्द्राचार्यने 'आत्मविमब' पदका इस प्रकार विवेचन किया है-'इस लोफर्म प्रगट समस्त बस्सुश्रीको प्रकाश करनेवाला और स्यात्पदसे चिहिस जो शब्दमा (अरहंतका परमागम) उसकी उपासना करि जिस विभवका जन्म हुआ है । समस्त विपश्न (अन्यवादियोंकर ग्रहण की गई सर्वथा एकान्तरूप नयपक्ष) उनके निराकरणमें समर्थ जो अतिनिस्तुष निर्वाधयुक्ति उसके अवलंबनसे जिस विभत्रका अगम है, निर्मल विज्ञान जो भारमा उसमें अन्तर्निमग्न परम गुरु सर्वज्ञदेव अपर गुरु मणधरादिकसे लेकर